धृतराष्ट्र के एक वैश्य वर्ण की पत्नी थी | उसी के गर्भ से युयुत्सु का जन्म हुआ था | युयुत्सु का स्वभाव गांधारी के सभी पुत्रों से बिलकुल अलग था | वह आपसी कलह और विद्वेष का विरोधी था और सदा धर्म और न्याय की बातें करता था, लकिन चूंकि सत्ता गांधारी के पुत्रों के हाथ में थी, इसलिए कोई भी इसकी नहीं सुनता था | कौरवों ने जिस प्रकार का छलपूर्ण व्यवहार अपने भाई पाण्डवों के साथ किया था, उसकी कटु भर्त्सना युयुत्सु ने की | दुर्योधन आदि इसका इसी कारण अपमान भी करते थे | कुछ दिन तक यह देखकर कि कौरव किसी प्रकार भी धर्म के पथ पर नहीं आएंगे, उसने इनका साथ सदा के लिए छोड़ दिया | युद्ध से पहले युधिष्ठिर ने घोषणा की थी कि जो हमारे पक्ष की और से लड़ना चाहे, वह हमारे यहां आए, हम उसका स्वागत करेंगे | इसी घोषणा को सुनकर युयुत्सु कौरवों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए पाण्डव-पक्ष में जा मिला | उसे विश्वासघाती भी कहा गया, लेकिन उसने इसकी तनिक भी परवाह नहीं की, क्योंकि उसके सामने परिवार और कुल की मर्यादा से ऊपर धर्म और सत्य की मर्यादा थी | उसी की प्रेरणा से उसने कुल और परिवार के उन बंधनों को काट दिया था, जिन्हें भीष्म जैसे योगी और द्रोणाचार्य जैसे पंडित भी नहीं काट पाए थे | भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य पूरी तरह समझते थे कि कौरवों ने पाण्डवों के साथ अन्याय किया है | यहां तक कि उन्होंने स्वयं अपने सामने द्रौपदी का अपमान होता देखा था, फिर भी अपनी आंखें नीचे झुका लीं | वे कौरवों के इस अन्यायी पक्ष का साथ तो छोड़ना चाहते थे, लेकिन नमक के धर्म में बंधे रहकर इसके लिए साहस नहीं जुटा पाते थे |बार-बार भीष्म ने दुर्योधन को बुरा कहा, लेकिन अंत में युद्ध उसकी सेना का सेनापति बनकर किया | द्रोण ने भी ऐसा ही किया | द्रोण ने तो उस वीर बालक अभिमन्यु के अन्यायपूर्ण वध में भी सहयोग दिया था | इसकी तुलना में यदि हम युयुत्सु को रखें तो वह न्याय और धर्म के पथ पर हमें अधिक दृढ़ दिखता है | उसने इन झूठी मर्यादाओं की चिंता न करके न्याय की भावना से अपने जीवन का तादात्म्य स्थापित कर लिया था |
कुछ नासमझ व्यक्ति उसको विश्वासघाती या कुलघाती कहते हैं, लेकिन जीवन के सत्य की विराट् आधारभूमि पर चिंतन करने से पता लगता है कि वह बड़ा ही सच्चा शूरवीर था | पांडवों के यहां उसका अपार स्वागत होता था | उसने भी पाण्डवों की ओर से सच्चाई के साथ युद्ध किया था और उनका इतना विश्वास जीत लिया था कि जब परीक्षित को राज्य देकर पाण्डव हिमालय की ओर चले तो युयुत्सु को परीक्षित का संरक्षक नियुक्त कर गए | इन सबको देखकर हमें युयुत्सु के रूप में एक ऐसा पात्र मिलता है, जिसमें सत्य और धर्म के प्रति अपूर्व दृढ़ता और साहस था और जिसने कभी झूठे बंधनों में बांधकर अपनी आत्मा को नहीं बेचा था |