दुर्योधन को शल्य के आने का समाचार पहले ही मिल गया था |
मद्रराज शल्य को मार्ग में सभी पड़ावों पर दुर्योधन के सेवक स्वागत के लिए प्रस्तुत मिले | उन सिखलाए हुए सेवकों ने बड़ी सावधानी से मद्रराज का भरपूर स्वागत किया | शल्य यही समझते थे कि यह सब व्यवस्था युधिष्ठिर ने की है | इस तरह विश्राम करते हुए वे आगे बढ़ रहे थे | लगभग हस्तिनापुर के पास पहुंचने पर उन्हें जो विश्राम स्थान मिला, वह बहुत ही सुंदर था | उसमें नाना प्रकार की सुखोपभोग की सामग्रियां भरी थीं | उस स्थान को देखकर शल्य ने वहां उपस्थित कर्मचारियों से पूछा, “युधिष्ठिर के किन कर्मचारियों ने मेरे मार्ग में ठहरने की है ? उन्हें ले आओ | मैं उन्हें पुरस्कार देना चाहता हूं |”
दुर्योधन स्वयं छिपा हुआ वहां शल्य के स्वागत की व्यवस्था कर रहा था | शल्य की बात सुनकर और उन्हें प्रसन्न देखकर वह सामने आ गया और हाथ जोड़कर प्रणाम करके बोला, “मामाजी ! आपको मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ ?”
शल्य चौंके ! उन्होंने पूछा, “दुर्योधन ! तुमने यह व्यवस्था कराई है ?”
दुर्योधन नम्रतापूर्वक बोला, “गुरुजनों की सेवा करना तो छोटों का कर्तव्य ही है | मुझे सेवा का कुछ अवसर मिल गया – यह मेरा सोभाग्य है |”
शल्य प्रसन्न हो गए | उन्होंने कहा, “अच्छा, तुम मुझसे कोई वरदान मांग लो |”
दुर्योधन ने वर मांगा, “आप सेना के साथ युद्ध में मेरा साथ दें और मेरी सेना का संचालन करें |”
शल्य को स्वीकार करना पड़ा यह प्रस्ताव | यद्यपि उन्होंने युधिष्ठिर से भेंट की, नकुल-सहदेव पर आघात न करने की अपनी प्रतिज्ञा दुर्योधन को बता दी और युद्ध में कर्ण को हतोत्साह करते रहने का वचन भी युधिष्ठिर को दे दिया, किंतु युद्ध में उन्होंने दुर्योधन का पक्ष लिया | यदि शल्य पाण्डव पक्ष में जाते तो दोनों दलों की सैन्य-संख्या बराबर रहती, किंतु उनके कौरव पक्ष में जाने से कौरवों के पास दो अक्षौहिणी सेना अधिक हो गई थी |