उषा और अनिरुद्ध - Usha and Aniruddha

उषा और अनिरुद्ध – Usha and Aniruddha

“मुझे छोड़कर मत जाइए प्राणेश्वर – मत जाइए – मैं आपके बिना जीवित नहीं रह सकती – मत जाइए – प्राणनाथ – मत जाइए,” राजकुमारी उषा के कांपते हुए होठों से निकला और फिर वह एक झटके के साथ उठकर बिस्तर पर बैठ गई |

राजकुमारी उषा की बड़बड़ाहट सुनते ही पलंग के इधर-उधर सोयी दासियां एकदम उठकर खड़ी हो गईं |

राजकुमारी उषा ने आंखें फाड़कर अपने चारों ओर नज़र घुमाई | विशाल शयनकक्ष में उसके और उसकी दासियों के अतिरिक्त और कोई नहीं था |

“कहां गए वह – ?” उसने सपने में डूबी आवाज़ में कहा |

“कौन राजकुमारी ?” कई दासियों ने तेजी से उसकी ओर बढ़ते हुए पूछा, ” यहां तो आपके और हमारे सिवा और कोई नहीं है |”

“नहीं, वह अभी-अभी यहीं थे – मेरे साथ इस पलंग पर लेते हुए थे – ये देखो – उनके शरीर की गंध अभी तक मेरे तन-मन और सांसों में बसी हुई है,” उषा ने अपनी कमल नाल जैसी बाहों को सूंघते हुए कहा, “नहीं-नहीं, वह मुझे छोड़कर कहीं नहीं जा सकते, उन्होंने स्वयं ही तो मुझे वचन दिया था -खोजो उन्हें |”

“लगता है आपने कोई सपना देखा है राजकुमारी,” एक मुहं लगी दासी हंसती हुई बोली, “बताइए वह कौन था, जिसने हमारी राजकुमारी के पलंग पर लेटकर उन्होंने प्यार करने की धृष्टता की ?”

“हां – शायद मैंने सपना ही देखा था,” राजकुमारी उषा ने एक ठंडी सांस भरकर कहा, “लेकिन नहीं, वह सपना नहीं था वास्तविकता थी | अगर वह सपना होता तो मेरे पोर-पोर में यह पीड़ा क्यों होती जो उनके आलिंगन के समय महसूस होती – मीठी मीठी पीर – जिससे अभी तक मेरा तन-मन सिहर रहा है |”

“सपन में ही सही, हमारी राजकुमारी को मनपसंद चितचोर मिल गया | हम लोगों को इस बात की बेहद खुशी है,” दासी ने कहा, “मैं इसी समय जाकर राजमाता को यह शुभ समाचार सुना आती हूं जो आपके योग्य वर की तलाश में बरसों से परेशान हैं |”

“नहीं, नहीं चंदा, मां को कुछ मत बताना,” राजकुमारी ने उसे रोकते हुए कहा, “तुम सवेरा होते ही महामंत्री कुम्मांड के घर चली जाना और उनकी पुत्री चित्रलेखा को बुला लाना | मेरी अंतरंग सहेली होने के साथ-साथ वह योग विद्या में भी परांगत है | महान चित्रकार है बिना व्यक्ति को देखे केवल उसका हुलिया सुनकर ही वह उसका चित्र बना देती है और फिर अपनी योग-शक्ति से उस व्यक्ति का नाम और पता भी बता देती है |”

“ठीक है, मैं सुबह होते ही चित्रलेखा को बुला लाऊंगी | अब आप आराम से सो जाइए | अभी एक पहर रात बाकी है,” दासी ने कहा और उसके कंधों को पकड़कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया |

राजकुमारी उषा ने सपने में जिस युवक के साथ अभिसार किया था उसका हुलिया जानने के बाद चित्रलेखा ने चित्र बना दिया |

“हां, सखी, यह वही है | वैसा ही नाक-नक्श, वही रंग-रूप, वैसी ही वेशभूषा,”राजकुमारी उषा ने चित्र को अच्छी तरह देखते हुए कहा, “लेकिन यह है कौन ? किस देश का राजा या राजकुमार है ?”

“इसके नाक-नक्श रंग-रूप और वेश-भूषा यादवों से बहुत मिलती-जुलती है | मेरे अनुमान से यह कोई यादव ही होना चाहिए | हो सकता है कृष्ण के वंश का या स्वयं उन्हीं का राजकुमार हो,” चित्रलेखा ने सोचते हुए कहा, “तुम चिंता मत करो | आज रात मैं अपनी योगशक्ति से द्वारिका जाऊंगी और तुम्हारे प्रियतम को खोजने की कोशिश करूंगी |”

चित्रलेखा की बात सुनकर राजकुमारी उषा के चेहरे पर उदासी छा गई | वह जानती थी कि उसके पिता दानवराज बाणासुर द्वारकाधीश कृष्ण को कट्टर शत्रु मानते हैं, क्योंकि उनकी मित्रता कृष्ण के शत्रु जरासंध और शिशुपाल आदि राजाओं से है | हालांकि कृष्ण ने उनका कभी कोई अहित नहीं किया लेकिन मित्र का शत्रु अपना भी शत्रु होता है | इस परंपरागत सिद्धांत के अनुसार वह कृष्ण को अपना शत्रु ही मानते हैं | यदि सपने का राजकुमार कृष्ण का वंशज हुआ तब तो उसके साथ विवाह होने का प्रश्न ही नहीं उठता |

राजकुमारी उषा की सहेली चित्रलेखा भी इस बात को अच्छी तरह जानती थी | उसने उषा को बहुत समझाया कि वह अपने सपने के राजकुमार को अपने मन से निकाल दे | लेकिन उषा ने हठ ठान ली कि भले ही कुछ भी हो जाए वह विवाह अपने सपने के राजकुमार के साथ ही करेगी |

प्रेम की पराकाष्ठा देखकर चित्रलेखा उसी रात अपनी योग शक्ति से द्वारिका पुरी पहुंच गई | उसने द्वारिका पुरी के एक-एक भवन में जाकर देखा | सहसा उनकी नज़र कृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध पर पड़ी | अनिरुद्ध अपने शयनकक्ष में गहरी नींद सो रहा था | उसने पलंग सहित ही अनिरुद्ध हो उठा लिया और आकाश मार्ग से लेकर राजकुमारी उषा के शयनकक्ष में पहुंच गई |

राजकुमारी उषा अनिरुद्ध को देकते ही पहचान गई | उसने अनिरुद्ध को जगाया | जब अनिरुद्ध ने आंखें खोलीं और अपने निकट उसको देखा तो वह आश्चर्यचकित रह गया |

उषा ने उसे पूरी कहानी सुनाने के बाद कहा, “मैं आपके बिना जीवित नहीं रह सकती | सपने में ही सही हम दोनों अभिसार के बाद पति-पत्नी बन चुके हैं |”

उषा के रूप और यौवन ने अनिरुद्ध के हृदय में भी उसके प्रति आकर्षण पैदा कर दिया था | वे दोनों एक दूसरे को अत्यधिक प्रेम करने लगे | वे एक दूसरे में इस सीमा तक खो गए कि उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उन्हें पति-पत्नी के रूप में रहते हुए कितने दिन व्यतीत हो चुके हैं |

पति-पत्नी के रूप में रात-दिन साथ-साथ रहने के कारण उषा का कौमार्य भंग हो चुका था | उसमें विवाहित युवती के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे थे | राजकुमारी के भवन में पुरुषों का आना वर्जित था | भवन के चारों ओर सैनिक हर समय तैनात रहते थे | राजकुमारी के शरीर, स्वभाव और रहन-सहन तथा व्यवहार में आया परिवर्तन पहरेदार सैनिकों की आंखों से छिपा न रह सका | उन्हें आश्चर्य हुआ कि राजकुमारी के भवन में कोई भी पुरुष नहीं जाता फिर राजकुमारी में यह परिवर्तन कैसे आ गए ?

उन्होंने अपनी यह आशंका जब दानवराज बाणासुर को बताई तो उसे दुख भी हुआ और क्रोध भी आया | वह तत्काल अपनी पुत्री के भवन में पहुंच गया | उसने देखा उसकी पुत्री एक सुंदर और सुशोभन युवक के साथ पासे खेल रही थी |

यह देख बाणासुर के क्रोध की सीमा न रही | उसने सैनिकों को आदेश दिया कि इस युवक को समाप्त कर दिया जाए जिसने उसके वंश के सम्मान को बट्टा लगाया है |

अपने आपको सशक्त सैनिकों से घिरा देखकर अनिरुद्ध ने भी शस्त्र उठा लिए और बाणासुर के सैनिकों का संहार करना आरंभ कर दिया |
लेकिन बाणासुर के अनगिनत सैनिक अकेले अनिरुद्ध का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाए | अपने सैनिकों का संहार होते देख बाणासुर ने नागपाश फेंक कर अनिरुद्ध को बांध लिया और कारागार में डाल दिया |

अपने शयनकक्ष में सोए हुए अनिरुद्ध को गायब हुए चार महीने बीत चुके थे | द्वारिका पूरी के निवासी इस घटना से अत्यंत दुखी और चिंतित थे | अनिरुद्ध को खोजने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन अनिरुद्ध का कहीं पता नहीं चला |

सहसा एक दिन नारद जी द्वारिका में आए | उन्होंने कृष्ण को अनिरुद्ध के शोणितपुर में होने, उषा के प्रेम प्रसंग और बाणासुर द्वारा उन्हें नागपाश में बांधे जाने की सारी घटनाएं विस्तार से सुनाईं |

बाणासुर भगवान शिव का भक्त था | उसकी एक हज़ार भुजाएं थीं | उसने एक हज़ार भुजाओं से शिव की आराधना करके उन्हें वरदान देने पर विवश कर दिया था | उसने भगवान शिव से यह वर मांग लिया था कि वह अपने गणों के साथ उसकी राजधानी शोणितपुर में हर समय रहेंगे और शत्रु का आक्रमण होने पर उसकी रक्षा करेंगे |

बाणासुर को अपनी शक्ति और पराक्रम पर बहुत गर्व था | एक बार उसने भगवान शिव के पास जाकर कहा कि मेरी हजार भुजाएं किसी से युद्ध करने के लिए बैचैन हो रही हैं | कोई ऐसा योद्धा मुझे इस संसार में दिखाई नहीं देता जिसके साथ मैं युद्ध कर सकूं |

भगवान शिव को उसके इस गर्व पर बड़ा गुस्सा आया | उन्होंने उसे एक ध्वजा देकर कहा, “तुम इस ध्वजा को अपने नगर के सिंह द्वार के ऊपर लगा दो | जिस दिन यह ध्वजा गिर जाए उसी दिन समझ लेना कि तुम जैसा शक्तिशाली योद्धा तुम पर आक्रमण करने के लिए आ पहुंचा है |”

जब कृष्ण और बलराम को नारद जी द्वारा अनिरुद्ध के बाणासुर की राजधानी शोणितपुर में होने का पता चला तो यादवों की एक विशाल सेना लेकर शोणितपुर पर उन्होंने आक्रमण कर दिया |

यादवों की सेना के नगर पर घेरा डालते ही नगर के सिंह द्वार पर लगी शिवजी की दी हुई ध्वजा उखड़कर ज़मीन पर आ गिरी | ध्वजा के गिरने की सूचना पाते ही बाणासुर समझ गया कि उस जैसे ही किसी पराक्रमी योद्धा ने उसके नगर पर आक्रमण कर दिया है |

बाणासुर को दिए वरदान के अनुसार भगवान शिव अपने गणों के साथ कृष्ण के मुक़ाबिले पर आ डटे | बाणासुर भी अपनी विशाल सेना के साथ युद्ध क्षेत्र में पहुंच गया | भीषण युद्ध होने लगा | कृष्ण ने अपने तीक्ष्ण बाणों से बाणासुर की चार भुजाएं छोड़कर शेष सारी भुजाएं काटकर फेंक दीं | यादवों की सेना के भीषण आक्रमण से घबराकर भगवान शिव के गण और बाणासुर के सैनिक युद्ध क्षेत्र से भागने लगे |
यह देखकर भगवान शिव ने स्वयं कृष्ण के पास पहुंचकर उनसे युद्ध बंद करने का अनुरोध किया |

कृष्ण का संकेत पाते ही यादवों की सेना रुक गई |

शिवजी के कहने पर बाणासुर ने उषा का विवाह बड़ी धूमधाम से अनिरुद्ध के साथ कर दिया |

कृष्ण अपने पुत्र और पुत्र वधू तथा अपनी सेना के साथ द्वारिका की ओर चल पड़े |

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