शूरसेन की प्रथम संतान एक पुत्री थी | उन्होंने बड़े ही प्यार के साथ उसका नाम पृथा रखा था | पृथा जब बड़ी हुई, तो शूरसेन ने अपने वचन के अनुसार उसे कुंतिभोज को सौंप दिया | कुंतिभोज ने उसे अपने घर ले जाकर उसका नाम कुंती रखा |
कुंती बड़ी रूपवती और गुणवती थी | गुणवती होने के कारण कुंतिभोज ने उसे अतिथियों और साधु-महात्माओं की सेवा का कार्य सुपुर्द किया था | वह बड़े ही मनोयोग के साथ इस कार्य को पूर्ण किया करती थी |
एक बार कुंतिभोज के घर दुर्वासा जी का आगमन हुआ | वे कई दिनों तक कुंतिभोज के घर उसके अतिथि के रूप में रहे | उनकी भी सेवा कुंती ही किया करती थी | कुंती की सेवा और उसके विनीत व्यवहार ने दुर्वासा के मन को जीत लिया | वे जब जाने लगे, तो उन्होंने कुंती को अपने पास बुलाकर कहा, “पुत्री ! मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूं | मैं तुम्हें एक मंत्र दे रहा हूं | तुम इस मंत्र को पढ़कर किसी भी देवता को अपने पास बुला सकती हो और मनचाहा वरदान प्राप्त कर सकती हो |” दुर्वासा कुंती को मंत्र देकर चले गए |
प्रभात के पश्चात का समय था | सुर्योदेव हो चुका था, आकाश में पक्षी उड़ रहे थे | कुंती राजकीय उद्यान में एक शिलाखंड पर बैठी हुई थी | सहसा उसका ध्यान दुर्वासा के मंत्र की ओर गया | उसने सोचा, क्यों न दुर्वासा के मंत्र की परीक्षा ली जाए |
कुंती ने मंत्र को पढ़कर सूर्यदेव का आह्वान किया | आश्चर्य, सूर्यदेव कुंती के सामने प्रकट हो गए | कुंती स्तब्ध हो गई | उसका मस्तक अपने आप ही सूर्य के समक्ष नत हो गया | सूर्यदेव बोल उठे, “तुमने मेरा आह्वान क्यों किया ?”
कुंती बोली, “देव, दुर्वासा ऋषि ने मुझे एक मंत्र दिया था | मैंने मंत्र की परीक्षा के लिए उसे पढ़कर आपका आवाहन किया | मुझे क्षमा कर दीजिए |”
सूर्यदेव ने कुंती की ओर देखते हुए कहा, “अब तो मैं प्रकट हो गया हूं | मेरा प्रकट होना व्यर्थ नहीं जाता | मैं तुम्हारे साथ रमण करना चाहता हूं | तुम्हें एक पुत्र देना चाहता हूं |”
कुंती बोली, “देव ! मैं कुमारी हूं | कुमारी लड़की के साथ रमण करना पाप है | मेरे गर्भ से जब पुत्र पैदा होगा, तो मैं समाज में कैसे रह सकूंगी ?”
सूर्यदेव बोले, “तुम चिंता मत करो | मेरे समागम से तुम्हारा कौमार्य नष्ट नहीं होगा, पुत्र पैदा होने पर भी तुम्हारा कौमार्य बना रहेगा | गर्भ की स्थिति में भी पता नहीं चल सकेगा कि तुम गर्भवती हो |”
इसी प्रकार जब सूर्यदेव ने कुंती को सांत्वना प्रदान की तो वह उनके साथ समागम के लिए उद्यत हो गई | परिणामत: सूर्यदेव ने कुंती के साथ रमण किया | कुंती गर्भवती हो गई | सूर्यदेव तो चले गए, कुंती गर्भस्थ बालक के उत्पन्न होने की प्रतीक्षा करने लगी |
समय पर गर्भस्थ बालक पैदा हुआ | कुंती बालक को छिपाए तो कैसे छिपाए | उसने लोकापवाद के भय से नवजात बालक को एक संदूक में रखकर उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया | वह संदूक हस्तिनापुर में अधिरथ नामक सारथि के हाथ लगा | उसकी पत्नी कानाम राधा था | उनके कोई संतान नहीं थी |
अधिरथ संदूक में नवजात शिशु को देखकर प्रसन्न हो उठा | शिशु भी कैसा ? बड़ा तेजोमय | वह कानों में स्वर्ण कुंडल और छाती पर कवच धारण किए हुए था | अधिरथ ने ऐसा बालक आज तक नहीं देखा था | वह उस बालक को अपने घर में ले जाकर उसका पालन-पोषण करने लगा |
अधिरथ द्वारा पालित वही नवजात शिशु बड़ा होने पर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ | कर्ण बड़ा शूरवीर और दानी था | उसके शौर्य और दान ने उसे अमर बना दिया |