अनन्तचतुर्दशी के दिन अनन्त भगवान्की पूजा की जाती है और अलोना (नमक रहित) व्रत रखा जाता है। इसमें उदयव्यापिनी तिथी ली जाती है, पूर्णिमा का समायोग होने से इसका फल और बढ जाता है।
अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा
सत्ययुग में सुमन्तु नाम के एक मुनि थे| उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी| सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्य मुनि से किया| कौण्डिन्य मुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पड़ीं| शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनत भगवान का पूजन करके अनन्त सूत्र बांध लिया| इसके फलस्वरूप थोड़े ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया|
एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्त सूत्र पर पड़ी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है| परतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्तसूत्र को जादू-मतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड़ दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया| इस जघन्य कर्म व अपराध का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया| उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई|
दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्य ऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया| वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए| उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेव का पता पूछते जाते थे| बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य मुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए| तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उनके आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनन्त देव का दर्शन कराया| भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है| इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो| इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत सुखी-समृद्ध हो जाओगे| कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया|
भगवान ने आगे कहा – जीव अपने पूर्ववत दुष्कर्मों का फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है| मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है| अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है| कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन: प्राप्त कर लिया|