महाशिवरात्रि - Mahashivratri

महाशिवरात्रि – Mahashivratri

महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है। यह त्यौहार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। यह त्यौहार सर्दियों के महीनों में आता है। महाशिवरात्रि रात के समय मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन से हुआ। साल में होने वाली 12 शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है|

विधान

त्रयोदशी को एक बार भोजन करके चतुर्दशी को दिनभर निराहार रहना पड़ता है। पत्र पुष्प तथा सुन्दर वस्त्रों से मंडप तैयार करके वेदी पर कलश की स्थापना करके गौरी शंकर को स्वर्ण मूर्ति तथा नन्दी को चाँदी की मूर्ति रखनी चाहिए। कलश को जल से भरकर रोली, मोली, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलाइची, चन्दन, दूध, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, बेल पत्र आदि का प्रसाद शिव को अर्पित करके पूजा करनी चाहिए। रात को जागरण करके चार बार शिव आरती का विधान जरूरी है। दूसरे दिन प्रातः जौ, तिल, खीर तथा बेलपत्र का हवन करके ब्राह्मणों को भोजन करवाकर व्रत का पारण करना चाहिए।

भगवान शंकर पर चढ़ाया गया नैवेद्य को खाना निषिद्ध है। जो इस नैवेद्य को खा लेता है वह नरक को प्राप्त होता है। इस कष्ट के निवारण के लिए शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम की मूर्ति रखते हैं। यदि शिव की प्रतिमा के पास शालिग्राम की मूर्ति होगी तो नैवेद्य खाने पर कोई दोष नहीं लगता है।

शिकारी कथाः

एक गाँव में एक शिकारी रहता था। वह शिकार करके अपने परिवार का पालन करता था। एक बार उस पर साहूकार का ऋण हो गया। ऋण न चुकाने पर सेठ ने उसे शिव मन्दिर में बन्दी बना लिया। उस दिन शिवरात्रि थी। वह शिव सम्बन्धी बातें ध्यानपूर्वक देखता एवं सुनता रहा। संध्या होने पर सेठ ने उसे अपने पास बुलाया। शिकारी ने अगले दिन ऋण चुकाने का वायदा कर सेठ की कैद से छूट गया। जंगल में एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर शिकार करने के लिए मचान बनाने लगा। उस पेड़ के नीचे शिवलिंग था। पेड़ के पत्ते मचान बनाते समय शिवलिंग पर गिरे। इस प्रकार दिनभर भूखे रहने से शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गये।

एक पहर व्यतीत होने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने निकली। शिकारी ने उसे देखकर धनुषबाण उठा लिया। वह हिरणी कातर स्वर में बोली, “मैं गर्भवती हूँ। मेरा प्रसव काल समीप ही है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगी।” शिकारी ने उसे छोड़ दिया। कुछ देर बाद एक दूसरी हिरणी उधर से निकली। शिकारी ने फिर धनुष पर बाण चढ़ाया। हिरणी ने निवेदन किया, “हे व्याघ्र महोदय! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने पति से मिलन करने पर शीघ्र तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊँगी।” शिकारी ने उसे भी छोड़ दिया। रात्रि के अन्तिम पहर में एक मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी ने शिकार हेतु धनुष पर बाण चढ़ाया। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि वह मृगी बोली, “मैं इन बच्चों को इनके पिता के पास छोड़ आऊँ, तब मझें मार डालना। मैं आपके बच्चों के नाम पर दया की भीख माँगती हूँ।” शिकारी को इस पर भी दया आ गयी और उसे छोड़ दिया। पौं फटने को हुई तो एक तन्दुरुस्त हिरन आता दिखाई दिया। शिकारी उसका शिकार करने के लिए उद्यत हो गया। हिरन बोला, “व्याघ्र महोदय! यदि तुमने इससे पहले तीन मृगियों तथा उनके बच्चों को मार दिया हो तो मुझे भी मार दीजिए ताकि मुझे उनका वियोग न सहना पड़े। मैं उन तीनों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवन दान दिया हो तो मुझपर भी कुछ समय के लिए कृपा करें। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने आत्मसमर्पण कर दूँगा।”

मृग की बात सुनकर रात की सारी घटनाएँ उसके दिमाग में घूम गई। उसने मृग को सारी बातें बता दी। उपवास रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से उसमें भगवद् भक्ति का जागरण हो गया। उसने मृग को भी छोड़ दिया।

भगवान शिव शंकर की अनुकम्पा से उसका हृदय मांगलिक भावों से भर गया। अपने अतीत के कर्मों को याद करके वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा।

थोड़ी देर बाद हिरण सपरिवार शिकारी के सामने उपस्थित हो गया। जंगली पशुओं की सत्यप्रियता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेम भावना को देखकर उसे बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उसने हिरण परिवार को मुक्त कर दिया।

देवता इस घटना को देख रहे थे। उन्होंने आकाश से उस पर पुष्प वर्षा की। शिकारा परिवार सहित मोक्ष को प्राप्त हुआ। परहित में किये गए यह सारे कर्म, हमें भगवान के ज्यादा करीब ले जाते हैं| हमें भी भगवान शिव से प्रार्थना करनी चाहिए जिस तरह उन्होंने शिकारी चित्रभानु के ह्रदय को निर्मल और पवित्र किया, हमारे ह्रदय को भी उसी तरह निर्मल और पवित्र करे|

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