किसी भी अन्य बालक की भांति गणेश जी का बचपन भी शरारतों से भरा था। उनकी बाल-क्रीड़ाएं इतनी चंचलता लिए होती थीं कि एक स्थान पर बैठना उनके लिए दुश्वार हो जाता था।
वे कैलास पर्वत के एक छोर से दूसरे छोर तक उन्मुक्त विचरण करते रहते थे। उनकी शरारतें कई बार सीमाएं भी लांघ जाती थीं, लेकिन वे सभी के प्रिय बने रहे। शिव गणों एवं गणेश को एक-दूसरे का साथ बेहद भाता था और वे साथ-साथ ही खेलते थे।
ऐसे ही एक दिन शिव गणों के साथ खेलते समय गणेश जी की दृष्टि कोने में बैठी घुरघुराती हुई बिल्ली पर पड़ी। उन्होंने बिल्ली की पूंछ पकड़ी और मरोड़ना शुरू कर दिया। बेचारी बिल्ली पीड़ा के मारे छटपटा उठी और अपने को छुड़ाने की चेष्टा करने लगी। इसी प्रयास में वह गणेश जी के हाथों से छूटकर नीचे जा गिरी। उसे काफी चोटें आईं।
अब गणेश जी को अपनी गलती का अहसास हुआ। वे तो मात्र खेल रहे थे। बिल्ली को चोट पहुंचाने का उनका कतई विचार न था। उन्हें अपने किए पर बेहद पश्चात्ताप हुआ, पर जो हो चुका था उसे तो लौटाया नहीं जा सकता था। वे भारी कदमों से वापस लौट चले।
अब उन्हें भूख भी सताने लगी थी। उन्होंने अपनी माता पार्वती जी से खाना देने को कहा। तभी उन्हें यह देखकर भीषण आघात लगा कि उनकी मां बुरी तरह घायल हैं और पीड़ा तथा वेदना उन्हें व्याकुल किए हुए हैं। उनके पूरे शरीर पर घाव तथा खरोचें लगी थीं और वे धूल में लिपटी हुई थीं।
उनकी यह दशा देख गणेश जी सोचने लगे – ‘मेरी मां पार्वती तो स्वयं एक अलौकिक शक्ति हैं। इस ब्रह्मांड में किसी में इतना साहस नहीं कि उन्हें छू भी सके। फिर यह सब कैसे हआ?’ तभी उन्हें याद हो आया कि बिल्ली के साथ उन्होंने क्या किया था। अब सारी स्थिति शीशे की भांति साफ हो गई थी।
उन्होंने सोचा – ‘दिव्यता सर्वव्यापी है, वह ब्रह्माण्ड के कण-कण में व्याप्त है। चाहे वह जड़ पदार्थ हो या चेतन। मेरी माता पार्वती भी दिव्य व सर्वव्यापी हैं, जब वे मेरे भीतर हो सकती हैं तो बिल्ली के भीतर क्यों नहीं। इसीलिए मेरे द्वारा बिल्ली को जो चोटें पहुंचाई गईं थीं वे सीधे मेरी मां पार्वती जी के शरीर पर भी पड़ गईं, क्योंकि बिल्ली में भी तो मेरी माता पार्वती विराजमान हैं।’ उन्हें अपने किए पर ग्लानि होने लगी। उन्होंने माता पार्वती से क्षमायाचना की और उन्हें विश्वास दिलाया कि भविष्य में वे अब किसी भी प्राणी को कदापि न सताएंगे।