शिव पुराण की रुद्र संहिता के कुमार खंड के 20वें अध्याय में ब्रह्मा जी व मुनि नारद के मध्य हुए एक संवाद से पता चलता है कि गणेश जी ने विवाह के लिए अपने भाई से किस प्रकार स्पर्धा की।
शिव-पार्वती के वात्सल्यपूर्ण सान्निध्य में गणेश जी एवं कार्तिकेय का विकास हो रहा था। एक दिन शिव-पार्वती यूं ही एकान्त में बैठे हुए थे और उनके दोनों पुत्र कुछ दूरी पर क्रीड़ामग्न थे। तभी शिव ने पार्वती से कहा, “हमारे पुत्र अब विवाह योग्य हो गए हैं; अब उनके विवाह की व्यवस्था की जाए? हमें अपने दोनों ही पुत्रों से समान स्नेह है।” तभी गणेश जी व कार्तिकेय भी वहां आ गए और जब उन्हें यह पता चला कि माता-पिता उनके विवाह की चर्चा कर रहे हैं तो वे बहुत प्रसन्न हुए। वे दोनों भी विवाह हेतु उत्सुक थे और दोनों ही हठ करने लगे कि पहले उसी का विवाह हो। शिव-पार्वती के सम्मुख विकट समस्या आ खड़ी हुई। उन्होंने कछ देर इस विषय पर विचार किया और फिर अपने दोनों पुत्रों को सम्बोधित कर कहा, “प्रिय पुत्रो! तुम दोनों ही हमें समान रूप से प्रिय हो और हमने कभी तुम दोनों में भेद नहीं किया। अतः हमने निश्चय किया है कि तुम दोनों में से जो भी पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले लौटेगा उसका विवाह पहले होगा।”
यह सुनते ही कार्तिकेय तो तुरंत ही पृथ्वी की परिक्रमा करने को निकल पड़े लेकिन भारी-भरकम शरीर वाले गणेश जी वहीं बैठे सोचने लगे- ‘क्या करूं? कहां जाऊं? पृथ्वी की परिक्रमा कर पाना मेरे लिए नितांत असंभव है, मैं तो लगातार कुछ दूर तक चल भी नहीं पाता।’
बुद्धि तो प्रखर थी ही गणेश जी की, उन्हें तुरंत ही एक उपाय सूझा। वे शिव-पार्वती के पास लौट आए और बोले, “माताश्री-पिताश्री! मैंने आप दोनों के लिए दो आसन बिछा दिए हैं, आप कृपा कर उन पर बैठें और मेरी उपासना स्वीकार करें। अंत में मैं आपसे आशीर्वाद की कामना करूंगा।”
शिव-पार्वती उन आसनों पर जा बैठे। तब गणेश जी ने विधिवत उनकी पूजा-अर्चना की और उसके बाद उनकी परिक्रमा करने लगे।
इस प्रकार उन्होंने सात बार अपने माता-पिता की परिक्रमा की और उनसे बोले, “मैंने शर्त पूरी कर दी है, अब आप मेरे विवाह का प्रबंध करें।”
यह सुनकर शिव-पार्वती बोले, “तुमने शर्त पूरी कहां की? जाओ पुत्र, पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके आओ। तुम्हारा भाई कार्तिकेय पहले ही जा चुका है। यदि तुम पहले लौटे तो तुम्हारा ही विवाह पहले होगा।”
ऐसा सुनकर गणेश जी गुस्से में बोले, “हे माता! हे पिता! मैंने सात बार आपकी परिक्रमा कर ली और आप कहते हैं मैंने शर्त पूरी नहीं की जबकि वेदों तथा अन्य शास्त्रों में लिखा है कि माता-पिता की विधिवत पूजा-अर्चना करके उनकी परिक्रमा करना धरती की परिक्रमा करने के समान है। इसके भी वही पुण्य फल होते हैं, जो धरती की परिक्रमा के होते हैं। या तो आप वेदों व पुराणों में लिखे को असत्य कह दें और या यदि उनमें लिखी बातें सत्य हैं तो पहले मेरे विवाह का प्रबंध करें।”
गणेश जी की तर्कपूर्ण बातें सुनकर शिवजी और पार्वती जी निरुत्तर हो गए। लेकिन दोनों ही गणेश जी की बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न थे।
फिर कुछ समय तक मूक होकर दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और मन ही मन कुछ निर्णय लिया। प्रजापति विश्वरूप की दो सुंदर कन्याओं, ऋद्धि व सिद्धि के साथ उन्होंने गणेश जी का विवाह कर दिया। नियत समय पर ऋद्धि व सिद्धि ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमशः क्षेम व लाभ रखे गए।
इधर, कार्तिकेय जब पृथ्वी की परिक्रमा पूरी कर वापस लौटे तो उन्होंने गणेश जी को सपरिवार आनंदपूर्वक रहते देखा। कार्तिकेय को कुछ समझ न आया।
नारद मुनि ने तुरंत ही उन्हें वह सब घटनाक्रम कह सुनाया, जो उनकी अनुपस्थिति में घटा था। सुनकर कार्तिकेय को भारी आघात लगा और शिव-पार्वती की काफी मान-मनुहार के बाद भी वे गुस्से में घर छोड़कर क्रौंच पर्वत की ओर चले गए।
कार्तिकेय ने आजन्म ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा की और इसे निभाया भी।
विदित हो कि ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार गणेश जी का विवाह ‘पुष्टि’ के साथ और कार्तिकेय का विवाह प्रजापति की पुत्री ‘देवसेना’ के साथ हुआ था। एक ही कथा की विभिन्न पुराणों में अलग-अलग रूपों में प्रस्तुति से इस बात का संकेत मिलता है कि कथाओं से जिस तथ्य की ओर संकेत किया जा रहा है, मनीषियों की दृष्टि में ही महत्वपूर्ण है न कि कथा का रूप।