जाति का गरबु न करीअहु कोई ॥
ब्रहमु बिंदे सो ब्राहमणु होई ॥१॥
जाति का गरबु न करि मूरख गवारा ॥
इसु गरब ते चलहि बहुतु विकारा ॥१॥ रहाउ ॥
चारे वरन आखै सभु कोई ॥
ब्रहमु बिंद ते सभ ओपति होई ॥२॥
माटी एक सगल संसारा ॥
बहु बिधि भांडे घड़ै कुम्हारा ॥३॥
नामा छीबा कबीरु जोलाहा पूरे गुर ते गति पाई ॥
ब्रहम के बेते सबदु पछाणहि हउमै जाति गवाई ॥
आगै जाति रूपु न जाइ ॥
तेहा होवै जेहे करम कमाइ ॥
अगै जाति न पुछी करणी सबदु है सार्॥
भगति रते से ऊतमा जति पति सबदे होइ ॥
बिनु नावै सभ नीच जाति है बिसटा का कीड़ा होइ ॥७॥
जात-पात के भिन्न- भेद में आस्था रखने वाली वर्ण-अभ्रमी धर्म जन्म और जाति – पात के आधार पर मनुष्य का ऊंच-नीच होना मानता है। गुरमत के अनुसार सभी मनुष्य एक परमेश्वर की अंश होने के कारण भाई-भाई हैं अर्थात बराबर हैं। जाति-पात के आधार पर किसी को ऊंचा व किसी को नीचा मानना पाप है। नेक कर्म करने वाला उत्तम और खोटे कर्म करने वाला नीच है। जात- पति अथवा वरण भेद के ब्राहमणी भेदभावों के भिन्न-भिन्न पक्षों पर यदि खुली विचार की जाय तो एक बहुत बड़ी खतरनाक पुस्तक तैयार हो सकती है। इस विषय पर तत्कालीन ब्राहमणी मत के विद्वान जितनी मर्जी है घमा-फिरा कर व्याख्या कर लें पर वे इसके मूल रूप को छिपा नहीं सकते हैं।
मनुसमृति, पाराशर संहिता, अत्रि संहिता, तुलसी की राम चरित मानस, वाल्मीकी रामायण आदि सभी पुरातन ग्रंथों में जाति -पात के भेद-भाव खड़े करके जो दुर्दशा शूद्र श्रेणी की, की गई है, वह अत्याचार, जुल्म और धक्केशाही की सभी सीमाएं पार करके रुला देती हैं। पिछली पांच-छ: सदियों से हिंदुस्तान के समाज सुधारक और धर्म प्रचारक छूत- छोत तथा जाति-पात के घृणित, अमानवीय और धर्म की रूह के बिल्कुल विपरीत घोर पाप को समाप्त करने का यत्न कर रहे हैं पर अभी तक ब्राहमण भाउ के जाल को तोड़ा नहीं जा सका। स्वतंत्रता के पश्चात कानूनी तौर पर भी इन अत्याचारों को समाप्त करने का यत्न किया गया है। हालांकि यह यत्न भी बिल्कुल सांप्रदायिक कारणों से और हिंदू कौम की बेहतरी को दृष्टि में रख कर हुआ है), पर इस जहर का असर बदस्तूर जारी है। कई सदियों की लंबी गुलामी और विदेशियों के कुभी नर्क जैसे अत्याचार के कांड सदियों से मुसलमानों के हाथों हुई अनव्रत मार-पिटाई भी इस मुल्क के लोगों को अक्ल न सिखला सकी।
कोई लाख चतुराई करे कि वरण आश्चमी भेदभाव हिंदुओं का बुनियादी सिद्धांत नहीं है, पर इस दशक में पुरी के अति सम्माननीय जगतगुरू शंकराचार्य जी महाराज के बयान दर छपे बयान को कैसे नज़रअंदाज किया जा सकता है जिसमें परम पूज्य जगत गुरू जी ने अपार दया व कृपा दर्शाते हुए स्पष्ट कहा है कि वे पवित्र हिंदू मंदिरों में पूजा पाठ करने और प्रवेश करने के अधिकार, प्रत्येक जाति वाले को देने को कदाचित तैयार नहीं हो सकते। आपने स्पष्ट घोषणा की कि छूत- छात के महान सिद्धांत को अपनाने से उन्हें कोई शक्ति नहीं रोक सकती। हिंदू धर्म छूते -छात को मानता है और मानता रहेगा। कुछ लोग जन्म से अछूत होते हैं। महात्मा गांधी जैसे अनेकों हिंदू अपने राजनीतिक लाभ के लिए और अंदर ही अंदर सांप्रदायिक हितों की साधना के लिए जो मर्जी है स्टैंड लिए जाएं, पर पुरातन हिंदू ग्रंथों के संदों से परम पूज्य जगत गुरू शंकराचार्य जी के स्टैंड का खंडन करने वाला कोई माई का लाल इस देश में न पैदा हुआ है और न हो पाएगा।
इस युग के महान विद्वान तथा राजनीतिज्ञ डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपनी रचना Annihilation of Caste में स्पष्ट लिखा है – जाति-पात और वरण- भेट का वेदों व समृतियों में भरपूर वर्णन है। समृतियों में जाति वरण तोड़ने वाले अपराधियों के लिए सख्त सजाएं निश्चित हैं। यथा, यदि शूद्र वेद पढ़े या सुने तो उस की जुबान काट दी जाए या सिक्का दाल कर उस के कानों में डाल दिया जाए आपने स्पष्ट लिखा हैं कि जाति-पात का भेदभाव धर्म शास्त्रों द्वारा प्रचलित हुआ हैं। इस का साफ अर्थ यह है कि लोगों को जाति-पात के भेदभावों को छोड़ने के लिए कहना शास्त्रों के मत के मौलिक सिद्धांतों के विरुद्ध चलने की प्रेरणा देना है। यदि हमने अपने इस उच्च लक्ष्य को प्राप्त करना है तो वेदों- शास्त्रों के धर्म अधिकार का सर्वनाश जरूरी है।
डाक्टर साहिब का उपरोक्त विचार हमारे मतानसार शत-प्रतिशत सही है! इसी विचार के आधार पर डाक्टर अंबेडकर ने सभी शूद्रों के गले से अछूतपन की बली को उतारने के लिए खुलेआम हिंदू धर्म को सदा के लिए त्यागने का निर्णय कर दिया था। यह ठीक है डाक्टर साहिब को लाखों करोड़ों अछूतों अथवा शूद्रों को ब्राहमणी मत के इस घोर अत्याचार और अन्याय से बचाने का अवसर मिल नहीं पाया, क्योंकि राजनीति पर छाए अनंत लीडर, जो बाहर से सैकुलर के नाम से अभी तक मशहूर हैं, पर अंदर से हिंदू सांप्रदायिकता की वृत्ति व स्वहितों के पोषण के लिए वे शूद्रों और अछूतों को अनेकों रियायतें देने के नाम पर राजनीतिक व आर्थिक लाभ के झांसे देकर अपना उल्लू सीधा करते रहे। जिसके कारण डाक्टर अबेडकर का लक्ष्य पूरा न हो सका।
गुरु अमरदास जी ने जाति-पात तथा वरण- आश्रम के भेदभावों का पूर्ण तौर पर खंडन किया और भ्रातृत्व, एकता त ” समानता के सिद्धांतों को व्यवहारिक रूप देने के लिए कई क्रांतिकारी, दम उठाए!
ब्राहमणी मत के अनुसार शूद्र अथवा अछूत कहे जाने वाले मनुष्य के हाथ का खाना-पीना तो कहीं रही, उस की परछाई और नजर तक से व्यक्ति भ्रष्ट हो जाता था।
सौ सुनार की, एक लुहार की कहावत को चरितार्थ करते हुए, गुरू साहिब ने, वरण-आश्रमी कुफर के गढ़ को पूरी तरह ध्वस्त करने के लिए और ब्राहमणी जाल को तार-तार कर देने हेतु एक बहुत ही क्रांतिकारी कदम उठाया। लंगर की मर्यादा तो गुरू नानक पातशाह ने चलाई ही थी और गुरू अंगद देव जी के दरबार में भी लंगर की पवित्र मर्यादा दबस्तूर जारी थी पर गुरू अमरदास जी ने ऐलान कर दिया कि संगत और दीवान में केवल वें जिज्ञासु ही भाग ले सकेंगे जो पहले संगत के सामूहिक लंगर में से भोजन सेवन कर लेंगे यह वरण- आश्रमी मत के सिद्धांत पर कुठाराघात था। वरणआश्रमी मत का विश्वासु तथाकथित नीच जातियों के हाथ का बना भोजन सेवन करने से हमेशा ही कतराता रहा है। अछूतों के हाथों पके अन्न को देखकर मानो उनकी जान ही निकल जाती है। दूर-दराज से हजारों की संख्या में सत्य के खोजी आत्मिक वे भ्रातृत्व का मार्गदर्शन पाने के लिए गुरू दरबार में हाजिर होते थे। सर्वसाझे भ्रातृत्व का उपदेश तो पहले ही दिया जाता था और नित्य यही शिक्षा दी जाती थी कि किसी को नीचा और अछूत न समझो क्योकि सभी बदे एक ही परमेश्वर की संतान हैं और आपस में भाई- भाई हैं पर इस से पूर्व कई लोग अपना दांव लगा लेते थे, भाव लंगर की हाजरी तो भर जाते पर सामूहिक लंगर की पक्ति में बैठने के समय पर एक ओर से खिसक लेते। लंगर तैयार करने में हर कोई बिना किसी जाति-पात-मजहब के भेदभाव के शामिल होता था। सेवन करते समय भी साझी पक्तियां लगाई जातीं। जाति अभिमानियों ने अपनी ‘कीमती राय देने के निरर्थक यत्न जरूर किए कि चलो पंक्ति में चल कर सेवन कर लेते हैं पर भिन्न-भिन्न जातियों की भिन्न-भिन्न पक्तियां लगवा दी जाएं लंगर तैयार करने में भी कुछ एक बहुत नीच समझी जाने वाली जातियों को शामिल न किया जाए। पर गुरदेव जी पर्वत जैसी मजबूत व अडोल हस्ती के सामने किसी की कोई पेश न जा सकी। जाति-पाति के भेदभाव के साथ ही उन्होंने आर्थिक भेदभाव का रास्ता भी काट दिया। आज यह बात चाहे हमें बिल्कुल साधारण सी लगती है कि इतिहास का गंभीर पाठक समकालीन समाज के हालात को देखते हुए यह बात हैरत से पढ़ने पर मजबूर होता है कि गोइंदवाल साहिब के लंगर में अकबर जैसे शहिनशाहे-हिंद और हरीपुर के राजा – रानियों और दरबारियों आदि ने। बिल्कुल साधारण व्यक्तियों के साथ बैठकर एक ही पंक्ति में गोइंदवाल में लंगर सेवन किया ।
वरण- आश्रम मत वाला, बहते पानी को साफ और पवित्र मानता था भले ही वह पीने लायक न हो। वास्तव में ब्राहमणी मत के पैरोकारों की खड़े पानी से पिद्दी निकलती थी। गुरु अमरदास जी ने सब को सुधारने के लिए बहुत ही मनोवैज्ञानिक तरीका अपनाया। आपने गोइंदवाल साहिब में एक बहुत बड़ा जलकुंड बनवाया जो कि बाउली साहिब के नाम से प्रसिद्ध है। एक तो साफ पानी की कमी पूरी तरह दूर हो गई और दूसरे इस खड़े पानी के स्त्रोत को सभी जातियों मजहबों के लोग जल लेन, पीने अथवा स्नान आदि के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। कुदरती बात थी कि कम से कम सिख मत में शामिल होने वाले लोग जाति-पात के जाल को फौरी तौर पर तोड़ने में सफल हो जाते जिस ने कुछ वर्षों में ही इन को एक शक्तिशाली कौम बना दिया। ध्यान रहे कि वरण आश्रमी ब्राहमणी मत के इस मायाजाल को तोड़ने की खातिर ही श्री अमृतसर तथा तरनतारन साहिब आदि स्थानों पर उपरोक्त तकनीक का प्रयोग करते हुए सरोवरों का निर्माण किया गया। खड़े पानी में सब जातियों के लोग स्नान करके अपने जाति-पात के भेद – भाव को तोड़ने में सफल हो गए और इस तरह ब्राहमण भाउ हमारे गले से उतरता गया। काश! सरोवरों की महानता को आज कौम इस असल पहलू द्वारा समझ सकती।
प्राचीन प्रथा चली आई है कि चौरासी पौड़ियों वाली गोइंदवाल साहिब वाली बाउली (जलकुड) में स्नान करने से व्यक्ति चौरासी योनियों के भंवर में से मुक्त हो जाता है। बात सौ फी सदी ठीक है। गुरमत को न समझने और मानने वाला वरणआश्रमी भेदभावों का श्रद्धालु वास्तव में चौरासी का खाज ही तो है और इस महान बाउली में स्नान करते समय चौरासी मते का जाल कुदरती तौर पर कट जाता है, भाव जाति-पात के बंधन कट जाते हैं और हमें हर मनुष्य ईश्वर की सुंदर कृति प्रतीत होने लगता है।