हउमै बितु मनु मोहिआ, लदिए अजगर भारी।।
गुरुङ सबदु मुखि पाइिआ हउमै बिख हरि मारी।।
(मलार महला 3, पृ १1260)
हउमै माइआ मोहि खुआइआ, दुखु खटे दुख खाइ।।
अंतरि लोभ हलकु दुखु भारी, बिनु बिबेक भरमाई।।
(भैर महलां 3 पृ १1132)
हउमै नावै नालि विरोधु है, दोइ न वसहि इक ठोइ।।
हुउमै विचि सेवा न होवई त मनु बिरथा जाइ।।
(वडहंस महला ३, पृ 560)
जग उमै मैलु दुखु पाइआ मलु लागी दूजे भाई।।
मलु उनै धोती किवै न उतरै जे सउ तीरथ नाई।।
(सिरी राग महला 3, पृ ३१) (13) मनमुस्व :
गुरू अमरदास जी ने बड़े सुंदर वे साफ शब्दों में मनुष्य को मन की अंगवाई की जगह पर गुरू की अगवाई में जीवन चलाने की प्रेरणा की है जिससे मनुष्य का जन्म सफल हो सके। मन की अगवाई में चलने वाला मनुष्य, नित्य झूठ बोलता है और विकारों की जहर ही बीजता और स्वाता है। मनमुख का, अंतर्मन जली हुआ होता है। मनमुख नित्य, काम, क्रोध, अंहकार आरि विकारों की कमाई करता है। जगह कुजगह की उसको कोई तमीज नहीं होती। वह हर जगह पर, हर समय विकारों में ही लीन रहता है। परमेश्वर के दरबार में अपने जीवन का हिसाब देने समय, वह झूठा घोषित किया जाता है।
मनमुख मनुष्य की मति बड़ी चंचल होती है। वह अपने मन ही मन बहुत चतुराइयां करता है। इस चतुराई के आधार पर की गयी उसकी सारी मेहनत बेकार जाती है। वास्तविक बात तो यह है कि मनमख परमेश्वर का नाम समिरन कभी नहीं करता है। परमेश्वर के नाम से टूट कर, मन को माया में फंसाकर रखने से सुख कैसे प्राप्त हो सकता है? मनमुख का जीवन ही ऐसा है कि वह कभी भी गुर शबद की विचार नहीं करता है।
गुरू अमरदास जी, उस जीवन को धिक्कारते हैं तो अहं के कारण पाप कमाता है और परमेश्वर के सुमिरन का, सदा रहने वाला अनंद त्याग देता है। मनमुख सतगुर से हीन होने के कारण पहले तो परमेश्वर की भक्ति करने के बारे में सोचता ही नहीं है, पर यदि कभी ऐसा सोच ही ले, तो भी सतगुरू के बिना उससे भक्ति नहीं हो सकती है। वह अहं तथा माया के दुखों में फंसा रह कर, आवमावन के चक्कर में पड़ा रहता है।
मनमुखु सद ही कूड़ो बोलै बिखु बीजै बिखु खाए ॥
जमकालि बाधा त्रिसना दाधा बिनु गुर कवणु छडाए ॥४॥सलोक मः ३ ॥ मनमुख बोलि न जाणन्ही ओना अंदरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥
थाउ कुथाउ न जाणनी सदा चितवहि बिकार ॥
दरगह लेखा मंगीऐ ओथै होहि कूड़िआर ॥
आपे स्रिसटि उपाईअनु आपि करे बीचारु ॥
नानक किस नो आखीऐ सभु वरतै आपि सचिआरु ॥१॥
(सारंग की यार, महला 3 ,पृ 1248)
मनमुख चंचल मति है अंतरि बहुतु चतुराई ॥ कीता करतिआ बिरथा गइआ इकु तिलु थाइ न पाई ॥
सलोक वारां ते वधीक, महला 3,११ 1414)