दैवी गुणों तथा ज्ञान के पुंज गुरू अमरदास जी - Guru Amardas Ji The Goddess of Divine Properties and Knowledge

दैवी गुणों तथा ज्ञान के पुंज गुरू अमरदास जी (Shri Guru Amar Das Ji)

भट्टों द्वारा गुर की स्तुति में उच्चारित बाणी की तरह गुरू ग्रंथ साहिब में राय बलवंड और सत्ते द्वारा उच्चारित रामकली की वार भी दर्ज है जिस में गुरू नानक साहिब से ले कर गुरू अर्जन देव जी तक पांच गुरू – अवतारों के महान व्यक्तित्वों और उनके उच्च आत्मिक गुणों का वर्णन है। गुरु अमरदास जी के महान व्यक्तित्व का वर्णन सत्ता जी करते हुए कहते हैं – गुरू अमरदस जी अपने पूर्वजों, गुरू नानक देव जी तथा गुरू अंगद देव जी जैसे ही महान हैं। गुरु अमरदास जी ने आत्मिक बल को नेहणी बना कर मन रूपी नाग को नेत्रे में डाला है और आत्मिक अडोलता के पहाड़ को मथनी बनाकर गुरू शबद रूपी सागर को बिलो कर दैवी गुणों रूपी रत्न निकालकर संसार के लोगों को ज्ञान का प्रकाश दिया है। गुरू अमर दास जी के मस्तिष्क पर गुरू नानक देव जी और गुरू अंगद देव जी जैसा नूर ही दिखलाई देता है और आपका सिंहासन व दरबार भी गुरू नानक देव जी च गुरू अंगद देव जी के समान हैं  आप आत्मिक अडोलता के मालिक हैं और आपने अपनी इंद्रियों को पूरी तरह नियंत्रित कर रखा है। आप निर्मल आचरण से भरपूर हैं ओर सदा परमेश्वर के यशगायन में लीन रहते हैं संसार में छाए विषय- विकारों के घोर अंधकार को दूर करने के लिए आप ईश्वरीय गुण रूपी किरणों वाले महान सूर्य है। अपने ऊंचे व निर्मल आचरण के द्वारा धर्म की उजड़ी हुई खेती को दुबारा आबाद कर दिया है और उसकी रक्षा की है।

गुरू अमरदास जी के अमृत – लंगर के द्वारा लोग आत्मिक जीवन का निर्माण कर रहे हैं। जो मनुष्य भी गुरू अमरदास जी के उपदेश को मन में धारण कर लेता है, वह हर स्थान पर परमेश्वर का दीदार करता है और उसका जीवन-मृत्यु का भंवर समाप्त हो जाता है। गुरू अमरदास जी के गुणों को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि अकाल पुरख?, मानो, आप गुरु अमरदास जी के रूप में प्रत्यक्ष खड़े हैं। विकारों के अंधड़ का गुरु अमरदास जी पर रत्ती मात्र भी प्रभाव नहीं और आप सुमेर पर्वत की भाति अडोल और मजबूत मन वाले हैं। आप सब जीवों के मानसिक रोगों को समझते हैं आप साक्षात गुरू नानक देव जी के गुरू अंगद देव जी के रूप ही हैं। यथा :

सो टिका सो बैहणा, सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा, पोता परवाणु ॥ जिनि बासकु नेते घतिआ करि नेही ताणु ॥ जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु ॥ चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु ॥ घोड़ा कीतो सहज दा जतु कीओ पलाणु ॥ धणखु चड़ाइओ सत दा जस हंदा बाणु ॥ कलि विचि धू अंधारु सा चड़िआ रै भाणु ॥ सतहु खेतु जमाइओ सतहु छावाणु ॥ नित रसोई तेरीऐ घिउ मैदा खाणु ॥ चारे कुंडां सुझीओसु मन महि सबदु परवाणु ॥ आवा गउणु निवारिओ करि नदरि नीसाणु ॥ अउतरिआ अउतारु लै सो पुरखु सुजाणु ॥ झखड़ि वाउ न डोलई परबतु मेराणु ॥ जाणै बिरथा जीअ की जाणी हू जाणु ॥

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