श्री गुरू अमर दास जी ने परम ज्योति में विलीन होने से पहले अपने परिवार के सभी सदस्यों को तथा संगत को एकत्रित किया और कुछ विशेष उपदेश दिये। इन उपदेशों को उनके पड़पौते सुन्दर जी ने राग रामकली में ‘सदु’ के शीर्षक से एक रचना द्वारा बहुत सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है। श्री सुन्दर जी, श्री आनन्द जी के सुपुत्र तथा बाबा मोहर जी के पोते थे। यह वाणी गुरू ग्रन्थ साहब में संकलित है। गुरूदेव ने अपने प्रवचनों में कहा – मेरे देहान्त के पश्चात किसी का भी वियोग में रोना बिल्कुल उचित नहीं होगा क्योंकि मुझे ऐसे रोने वाले व्यक्ति अच्छे नहीं लगते। मैं परम पिता परमेश्वर की दिव्य ज्योति में विलीन होने जा रहा हूँ। अतः आपको मेरे लिए एक स्नेही होने के नाते प्रसन्नता होनी चाहिए। गुरूदेव ने कहा – सँसार को सभी ने त्यागना ही है, ऐसी प्रथा प्रभु ने बनाई हुई है। कोई भी यहाँ स्थाई रूपमें नहीं रह सकता, ऐसा प्रकृति का अटल नियम है। अतः हमें उस प्रभु के नियमों को समझना चाहिए और सदैव इस मानव जन्म को सफल करने के प्रयत्नों में व्यस्त रहना चाहिए ताकि यह मनुष्य जीवन व्यर्थ न चला जाए।
गुरूदेव ने कहा – मेरी अंत्येष्टि के समय किसी प्रचलित कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है। मेरे लिए केवल प्रभु चरणों में प्रार्थना करना और समस्त संगत मिलकर हरि कीर्तन करना और सुनना। कथा केवल प्रभु मिलन की ही की जाए। इस कार्य के लिए भी संगत में से ही कोई गुरूमति का ज्ञात व्यक्ति चुन लेना, तात्पर्य यह है कि अन्य मति का प्रभाव नहीं होना चाहिए। केवल और केवल हरिनाम की ही स्तुति होनी चाहिए। यह आज्ञा देकर आप एक सफेद चादर तानकर लेट गये और शरीर त्याग दिया। आप एक सितम्बर 1574 तद्नुसार भाद्रव सुदी 15 संवत 1631 को दिव्य ज्योति में विलीन हो गये।
सतिगुरि भाणे आपण बहि परवारु सदाइआ।
मत मै पिछे कोई रोवसी सो मै मूलि न भाइआ। यथा ।
अते सतिगुरु बोलिआ, मैं पिछे कीरतनु करिअहु निरवाणु जीउ।
पृष्ठ 923 उनकी इच्छा अनुसार बिना किसी कर्म काण्ड के व्यासा नदी के किनारे अंत्येष्टि कर दी गई। बाढ़ के दिनों में वह स्थल नदी में लुप्त हो गया और शेष कुछ भी न रहा।