इहु जगतु ममता मुआ जीवण की बिधि नाहि ॥
गुर कै भाणै जो चलै तां जीवण पदवी पाहि ॥
हउमै ममता मोहणी मनमुखा नो गई खाइ ॥ जो मोहि दूजै चितु लाइदे तिना विआपि रही लपटाइ ॥
ए मना अति लोभीआ नित लोभे राता ॥ माइआ मनसा मोहणी दह दिस फिराता ॥
अगै नाउ जाति न जाइसी मनमुखि दुखु खाता ॥ एहु सभु किछु आवण जाणु है जेता है आकारु ॥
जिनि एहु लेखा लिखिआ सो होआ परवाणु ॥ नानक जे को आपु गणाइदा सो मूरखु गावारु ॥१॥
हउ हउ करदी सभ फिरै बिनु सबदै हउ न जाइ ॥ नानक नामि रते तिन हउमै गई सचै रहे समाइ ॥८॥८॥३०॥
हम नीच मैले अति अभिमानी दूजै भाइ विकार ॥
गुरि पारसि मिलिऐ कंचनु होए निरमल जोति अपार ॥२॥
बिनु नावै सुखु न पाईऐ ना दुखु विचहु जाइ ॥
इहु जगु माइआ मोहि विआपिआ दूजै भरमि भुलाइ ॥४॥
पूरै गुरि समझाइआ मति ऊतम होई ॥
अंतर् सीतल सांति होइ, नामें सुख होई॥
इसु जुग महि सोभा नाम की बिनु नावै सोभ न होइ ॥
इह माइआ की सोभा चारि दिहाड़े जादी बिलमु न होइ ॥५॥
तनु मनु धनु सभु सउपि गुर कउ हुकमि मंनिऐ पाईऐ ॥
( श्री गुरु अमरदास जी पृ ९१८)
मनुष्य के आत्मिक जीवन को तबाह करने में हमारे कई भाईचारक और सामाजिक रस्मो रिवाज बड़ा महत्वपूर्ण रोल अदा करते हैं । यदि ये रस्मो रिवाज वास्तविक व सादगी भरे हों तो मनुष्य के
आत्मिक निर्माण के लिए लाभदाई होते हैं । यदि इनमें और की और नवीन मनोवृत्तियां सम्मिलित होती जाएं तो मनुष्य का आत्मिक जीवन ही नीच नहीं हो जाता, बल्कि इनसे मानवीय भ्रातृत्व में भी कई क्लेश उठ रवड़े होते हैं । फिर, इन क्लेशों द्वारा और अधिक सामाजिक बुराइयों का जन्म होता जाता है जिससे मानवीय जीवन नारकीय हो जाता है ।
आज विवाह-शादियों से संबंधित अनेकों रस्में पैदा हो चुकी हैं। जिनके कारण मनुष्य का आत्मिक जीवन ही तबाह नहीं हुआ बल्कि भ्रातृत्व के पक्ष से भी मनुष्य का जीवन भी नर्क बन चुका है। गुरु अमरदास जी इस तथ्य को भलीभांति समझते थे और इसीलिए इस संबंध में आप ने मानव समाज में फौरी तौर पर वांछित सुधार करने आवश्यक समझे थे । विवाह शादियों संबंधी अनावश्यक रस्मो-रिवाजों का जन्म और विकास, मनुष्य की नीच मनोवृत्तियों में से हुआ है । इन दुरावृत्तियों को ठीक दिशा देने के लिए आप ने अपनी बाणी और व्यवहारिक जीवन के द्वारा नीचे लिखे विचार दृढ करवाए थे ।
सांसारिक लोग ममता की भावना के कारण आत्मिक जीवन बद कर रहे हैं । वे आदर्श जीवन युक्ति से अनभिज्ञ हैं । सही जीवन युक्ति के लिए गुरु की शिक्षा के अनुसार ढलना जरुरी है । गुरु की मति को छोड़ कर मन की अगवाई में चलने वाले, अहं और ममता के हाथों बर्बाद होते हैं । वे ईश्वर को छोड़ कर माया में मन जोड़े रखते हैं। लोभी पुरुष अनावश्यक पदार्थवादी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भटकते रहते हैं।
मनुमती पुरुष सांसारिक बड़प्पन और जाति अभिमान के हाथों चढ़ कर, अपने लिए दु:ख पैदा करते हैं। ऐसे मनमुख इस वास्तविकता को ही नहीं समझते कि पदार्थवादी बड़प्पन नाशवान चीजें हैं। अपने आप को . इनके आधार पर बड़ा गिनने वाला मनुष्य मूर्ख और गंवार होता है ।
गुरु अमरदास जी के अनुसार संसार के अधिकांश मनुष्य अपनी अहं वृत्ति में ही विचरण कर रहे हैं । इस अहं वृत्ति से गुर उपदेश के द्वारा ही छुटकारा हो सकता है । गुरू द्वारा दर्शाई युक्ति के अनुसार प्रभु के साथ सच्चा प्यार डाल कर, उसका नाम सुमिरन करने से अहं को समाप्त किया जा सकता है । यह सांसारिक जीव, नीच और पापों से भरा होने पर भी अहंकार किये जा रहा है । गुरु रूपी पारस के स्पर्श के बिना हमारा जीवन निर्मल नहीं बन सकता । यह बात पक्की तरह समझनी चाहिए कि प्रभु के प्यार और सुमिरन के बिना, सच्चा सुख नहीं मिल सकता । मन का सांसारिक दुखों से छुटकारा भी नहीं हो सकता है संसार के लोग, माया के प्यार में फंसे हुए होने के कारण, सच्चे मार्ग से भटके हुए हैं । केवल मात्र पूरे गुरु के उपदेश द्वारा हमारी बुद्धि उत्तम और निर्मल हो सकती है । हमारे मन में शीतलता, शांति और स्थाई सुख पैदा हो सकता हैं । मानवीय जीवन की सच्ची शोभा व भहानता, परमेश्वर के नाम सुमिरन में निहित हैं । पदार्थवादी प्राप्तियों के द्वारा मिली शोभा व सम्मान, चार दिनों के हैं, क्षणभंगुर हैं, जिनका कोई आधार नहीं है । सीधी तथा साप बात तो यह है कि मनुष्य अपने जीवन को सफल करने के लिए तन, मन तथा धन संबंधी, सभी प्राप्तियों के अहं को छोड़कर । सतगुरु के आदेशे को मान ले और उन्हें व्यवहार में लाए । | गुर उपदेश की ओर ध्यान न देने के कारण विवाह शादियों के बहाने अपनी लालची वृत्तिं को शांत करने के लिए लड़की वालों से अधि क से अधिक दहेज लेने की कोशिश की जाती है । यह वृत्ति कई बार तो परले दर्जे की घृणित व सामाजिक अत्याचार से भी ऊपर होती है । इस कुरीति के कारण समाज में बेटी और पुत्र, या स्त्री और पुरुष की बराबरी का नियम कायम करना नामुमकिन हुआ पड़ा है । इस रुचि ने, मनुष्य के जीवन में ईष्र्या, द्वेष, बदले की भावना आदि ही पैदा नहीं किये। बल्कि मनुष्य की जहां कहीं भी चली है, रिश्वत लेने की रुचि को भी बहुत बढ़ाया है। अहं की वृत्ति ने दिखलावे को भारी बढ़ावा दिया है और इसके कारण दहेज का प्रदर्शन, ऊंची-नीची जाति का भेदभाव तथा इससे पैदा हुए झगड़े बहुत बढ़ गए हैं । झूठे प्रदर्शन की रुचि और लालच ने अपव्यय को इस कदर बढ़ा दिया है कि बेटियों वाले गरीब माता पिता का ही नहीं, साधारण आर्थिक दशा वाले माता पिता का जीवन भी कुंभी नर्क बन गया है ।
विवाह मनुष्य के जीवन की एक आवश्यक और पवित्र सामाजिक आवश्यकता है । इसके लिए कोई सीधा समतल, सादगी से परिपूर्ण सामाजिक तरीका भी अपनाया जा सकता था जिससे मनुष्य के जीवन में अनावश्यक आर्थिक क्लेश और दुख न पैदा होते है पर मनुष्य की | लालची तथा अहं वृत्तियों ने कई व्यर्थ व थोथी पाप भरी रस्मों-रीतियों को जन्म दे कर मनष्य के जीवन के लिए द:ख मोल ले लिए हैं । इन रीतियों रिवाजों में ब्राहमणी मत ने भी अपनी आदत और स्वभाव के अनुसार जोरदार योगदान किया है । पुराने समय में रिश्ता – नाता तय करवाने, राशियों, जाति आदि को दृष्टि में रखकर ऐसे भावी वर-वधु के जोड़ों को शुभ अशुभ और उचित – अनुचित घोषित करने और विवाह पढ़वाने के लिए ब्राहमण जैसे अद्वितीय व्यक्तित्व का बहुत महत्व हुआ करता था । और तिस पर इस सब के लिए उसने भीड़ा निश्चित कर रखा था । आज भी देरवा देवी के कारण और ब्राहमणी मत की बेआवाज लाठी के कारण, बेशुमार लोग मनमत और पोप लीलाओं की ओर धकेले। जा रहे हैं ।
सिख रहित मर्यादा में अनंद संस्कार अथवा सिख विवाह रीति संबंधी कई बातों का उल्लेख किया गया है । इनमें से कुछेक बालों की और सिख मुखियों तथा धार्मिक लीडरों को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । सिव रहित मर्यादा के अनुसार, सिख लड़के लड़की का विवाह जाति पात गौत्र आदि को पूर्ण तौर पर नजरअंदाज करके होना चाहिए और सिख लड़की का विवाह केवल सिख लड़के के साथ ही हो सकता है । सफल जोड़े के लिए एक जैसे विचारों का होना सदा सुखदाई होता है । रिश्ता पक्का करने के लिए संगत की हजूरी में केवल अरदास की रस्म चाहिए । अनंद का दिन निश्चित करने के लिए पत्री वाचन या अच्छे बुरे दिन का जांचना, थित वार आदि का विचार करना, विशुद्ध मनमति है | सेहरा, मुकुट, गाना आदि बांधना पिलर पूजा करना, कच्ची लस्सी में पैर डालना, बेरी जंडी आदि को काटना घड्रोल भरना, रूठ कर जाना, छंद पढ़ने, हवन करना, वेदी गाड़ना, वेश्या नाच, शराब आदि सब मनमल के कर्म हैं | लड़के लड़की का विवाह पैसे या भेट लेकर करवाना भी पाप कर्म है ।
वर्तमान समय में अनेकों दकियानूसी रस्मों को नवीन रूप दिया जा चुका है और कई नवीन सामाजिक बुराइयां पैदा हो रही हैं । इनकी ओर भी पंथ- दर्दियों तथा धार्मिक नेताओं को तुरंत ध्यान देना चाहिए । जयमाला की रीति बिपरन (ब्राहमणी) छाया होने के कारण त्याजय है । शराब पीना सिख जीवन पद्धति के विपरीत कुकर्म है । यह अपव्यय के अतिरिक्त और कई सामाजिक बुराइयों को जन्म देने वाली चीज है । रीसैप्शन कार्यक्रमों के नाम पर होने वाले फटीचर कार्यक्रम मनोरंजन की जगह भ्रातृत्व मर्यादा को तोड़ कर, शराब और काम- कुकर्मों को उकसा रहे हैं । सजावट और रोशनी प्रबंधों के नाम पर अपव्यय इस सीमा तक बढ़ चुका है कि बेटी वालों की तो मानो, कमर ही टूटने वाली बात बनी हुई है। देरवा देखी के बहाने यह अपव्यय व दिरवलावे दिनों दिन फटे हुए जूते की तरह बढ़ते ही जा रहे हैं । बैंड बाजों की धुनियां किसी को प्यारी लगे या न लगें, ऐसी आवश्यक बुराई की शक्ल धारण कर चुकी हैं जैसे प्राचीन सनातनी मत के धारणकर्ता के लिए ब्राह्मण या पुरोहित । शहरों नगरों की बारातों में एक और नई बीमारी क्षय रोग बन कर सिख समाज में फैल चुकी हैं । कोई-कोई ही परिवार इस क्षय रोग से बच पाया होगा । आम सिख परिवार इस जाल में बुरी तरह फंस चुके हैं । सड़कों बाजारों में वर का जो जलूस बारात के साथ निकाला जाता है उसमें सिख युवक युवतियां ही नहीं वृद्ध तथा अर्द्ध वृद्ध बेसुरे बाजे की धुन पर नाच कर (जो डांसर नहीं होते) सिख सभ्यता को बिल्कुल हल्का करने का, अनजाने में अपराध कर रहे हैं । यह दृष्टि से ओझल करने वाली बात नहीं है । हमारा यह तात्पर्य कभी नहीं है कि दुनियादारों को अपने ऐसे खुशी के अवसरों को मनाने से रोका जाए । हमारा यह सब कुछ लिखने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि हम ओछे बनने से बचें और सिरवी विरोधी रीति रिवाजों को अपनाकर सिख सभ्यता की रस्मों को हल्का-फुल्का बनाने के घोर पाप से तोबा करें । खुशी मनाने के लिए कई सुंदर तथा स्वस्थ तरीके अपनाए जा सकते हैं । हां, यदि मक्खी की तरह गंदगी पसंद करने की वृत्ति को अपनाना ही हमारा कर्म हो तो एमरजेंसी लगाने वाली प्रधानमंत्री भी हमें रोक नहीं सकती । ऐसी वृत्ति की व्याख्या गुरबाणी में इस प्रकार की गई है :
कबीर पापी भगति न भावई हरि पूजा न सुहाइ ॥
माखी चंदनु परहरै जह बिगंध तह जाइ ॥६८॥
सत्य पूछो तो विवाह – शादी संबंधी हमारे रस्मोरिवाज फौरी ध्यान मांगते हैं । सारे पंथ को अपनी रहित मर्यादा पर कुछ वर्षों के पश्चात दृष्टिपान करना चाहिए ताकि मनमती कर्म पी ढोरों को गुरमत के खूबसूरत महल में दाखिल होने से रोका जा सके । हमारी दृष्टि से तो दूध पिलाने, ठाका करने तथा कुड़माई आदि की सभी रस्में बेकार हैं और इन्हें अनुपयोगी व अपव्यय वाली घोषित कर देना चाहिए । इन सब की जगह पर केवल अरदास की रीति को महत्व देना चाहिए जो कढ़ाह प्रशाद की देग सहित या इसके बिना भी हो सकती है । और कोई लेने देन की बाल पोप लीला के तौर पर इस समय नहीं होनी चाहिए । विवाह संबधी रस्मों का निर्णय करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि ये रस्में ऐसी हों जिन से हमारी सर्वव्यापी, सर्वोत्तम सिख सभ्यता निखर सके और इस सभी के लिए पूर्वी और पश्चिमी सभ्यताओं की सभी प्रकार की निरर्थक और गलत रीतियों का त्याग करना बहुत जरूरी है ।
गुरमत में स्त्री-पुरुष के बराबर के स्थान को दृष्टि में रखते हुए धेतियां (लड़की वालों) को पुतेतियां (लड़के वालों) के सामने हर मामले में जलील सी पोजीशन में प्रस्तुत करने का संपूर्ण विरोध होना चाहिए । इसकी जगह पर स्वस्थ गुरमत की दिशा निकालकर ब्राहमणी मत की इस गलत छाया से सिखी को बचाना चाहिए ! हमारा पंथ के प्रति सनिम्र निवेदन है कि घेते – पुते की मिलणी का ड्रामा करने की जगह सीधे गुरू दरबार में हाजर होने और वहां पर सादे दीवान में अनंद पढ़ा कर यह रस्म पूरी कर ली जाय और फिर साझे तौर पर विशेष प्रकार के लंगर का प्रबंध कर लिया जाए । संबंधित विषय सभी पक्षों से खुली विचार की मांग करता है और इस संबंध में निर्णय करना पंथ के क्षेत्राधिकार में आता है । कुछ भी हो, हमें अपने समाज में से विवाह शादियों के बारे में अपनाई जा रही मनमतों से परामतों को त्याग देने का निर्णय कर ही लेना चाहिए ।
इस संबंध में गुरु अमरदास जी ने अपने जीवन में कई क्रांतिकारी। और व्यवहारिक कदम उठाए थे । जैसे कि इसे लेख के आरंभ में गुरू अमरदास जी के विचार बताए जा चुके हैं कि रिश्ता -नाता ढूंढने के | लिए जाति, पात, गौत्र, धन- दौलते आदि के आधार ओछेपन की निशानी हैं । शारीरिक मेल, स्वभाव का मेल, गुणों का मेल, आयु व व्यक्तित्व का मेल और सब से अधिक जरूरी गुरमत धारण करने संबंधी मेल को देखना चाहिए । इन आधारों पर ही गुरू अमरदास जी ने अपनी बेटी बीबी दानी जी का आनंद कारज रामा जी नामक अति साधारण सिरव से किया । बीबी भारी जी के लिए योग्य वर चुनते समय तो उन्होंने हद ही कर दी । जेठा जी (जिन्नको चौथे स्थान पर गुरू नानक पातशाह जी की गद्दी सौंपी गई थी) अभी आयु में छोटे ही थे, कि उनके माता जी का साया सिर से उठ गया । नानी यतीम जेठा जी । को लेकर बासरके आ गई थी । नानी भी आर्थिक तौर पर बहुत कमजोर थी । इसी कारण छोटी उम्र में ही उदर पूर्ति के लिए जेठा जी को धुंधणियां (उबली हुई गेहूं व चने) बेचने का काम करना पड़ता था । गुरू अमरदास जी की आर्थिक दशा कभी कमजोर नहीं रही । उनका सामाजिक स्तर भी आत्मिक गुणों के कारण बहुत ऊंचा हो चुका था। यदि दुनियादारी की नजर से परखें तो गुरु अमरदास जी अपनी सपुत्री बीबी भानी का रिश्ता एक अति गरीब तथा यतीम लड़के के साथ नहीं कर सकते थे । पर आप ने तो इस सिलसिले में हमें व्यवहारिक शिक्षा देने के लिए काम करना था । गुरमत, आर्थिक स्थिति के आधार पर किसी को बड़ा या छोटा नही मानती । आयु, गुणों, सिरवी प्यार, स्वभाव, आचरण आदि के मेल के कारण बीबी भानी जी के लिए जेठा जी का संयोग सब से अधिक मेल खाता था । आर्थिक स्थिति को पूरी तरह व्यवहारिक रूप में नजर – अंदाज करके बीबी जी का रिश्ता जेठा जी से कर दिया गया । इस आधार पर हुआ रिश्ता कितना सफल हुओं, बाद का इतिहास इसका सुंदर साक्षी है ।
ठीक है कि जेठा जी अपने महान गुणों और ईश्वरी कृपा के कारण गुरु अमरदास जी के बाद रामदास जी के नाम के साथ चौथे स्थान पर गुरगद्दी के अधिकारी बने, पर शुरू में आप जिस कमजोर आर्थिक दशा वाले और सांसारिक दृष्टिकोण से हीन स्तर वाले थे, और जिस प्रकार उन को गुरू अमरदास जी ने स्वीकार किया था, उस का वर्णन आपने अपनी बाणों में इन शब्दों में किया है :
जो हमरी बिधि होती मेरे सतिगुरा सा बिधि तुम हरि जाणहु आपे ॥
हम रुलते फिरते कोई बात न पूछता गुर सतिगुर संगि कीरे हम थापे ॥
‘प्रेमा’ जो अपने कुकर्मों के कारण कुष्टि हो गया था, सतगुरू अमरदास जी की कृपा द्वारा अरोग हो गया था । वह सिखी की कमाई करने लग गया । गुरू अमरदास जी ने उसका नाम भी मुरारी रख दिया । उस को अपना बेटा जान कर उसे सम्मानित करते हुए संगत में मांग की कि कोई सज्जन मुरारी के संग अपनी वर – योग्य कन्या का विवाह कर दे । शीहां उप्पल ने अपनी लड़की मथो का रिश्ता करना मान – लिया । शीहे की पत्नी को यह प्रस्ताव अच्छा न लगा । जोड़ी गुणों, स्वभाव, आयु, व्यक्तित्व आदि के पक्ष से ठीक बनती थी पर बीबी मथो की माता की बड़ी आपत्ति यह थी कि मुरारी के माता-पिता, खानदान आदि का कुछ पता नहीं और पूर्ववृत्त भी अच्छा नहीं । गुरू अमरदास जी ने गुरमत ज्ञान द्वारा मथो के माता जी के इस बारे में भुलेरवे को दूर किया और अंत माता ने बीबी मथो का अनंद कारज मुरारी के साथ करवाना मान लिया । मथ मुरारी की सौभाग्य जोड़ी अपने निजी जीवन के लिए ही अच्छी सिद्ध नहीं हुई बल्कि सिखी का इस जोड़ी ने इतनी लगन व उत्साह से प्रचार किया कि सतगुरु अमरदास जी ने ‘भयो मुरारी को संयुक्त तौर पर प्रचारक की मंजी प्रदान की मंदर गाव (जिला लाहौर) का एक ब्राहमण ‘सचन-सच’ गुरू घर का व्यवहारिक जीवन वाला सिख बन गया था । हरीपुर कांगड़ा की घूघट निकालने वाली रानी जो जंगल की ओर दौड़ गई थी, को सतगुरू जी ने अरोग्य करके सचने सच के साथ विवाह बंधन में पिरो दिया । यह विवाह जाति पात आदि के बंधन तोड़ कर ही नहीं हुआ था बल्कि एक पुनर्विवाह भी था । हरीपुर की इस रानी को राजा ने सदा के लिए छोड़ दिया था क्यों कि यह पागल हो कर जंगलों की ओर दौड़ गई थी । यह विवाह भी बहुत सफल रहा और इस जोड़े ने भी गुरमत का बहुत प्रचार किया है।
विवाह शादियों संबंधी रस्मों और विचारधारा में सिख कौम को फौरी तौर पर ध्यान देने की आवश्यकता है । इसे अपनी निराली रहित-मर्यादा । स्थापित करनी चाहिए और इस संबंध में ब्राहमणी मतों के जाति गौत्रों के प्रभावों और वर्तमान नास्तिक और मयायावादी प्रभाव से छुटकारा प्राप्त करना चाहिए ।