मेरे मन गुर की सिख सुणीजै ॥
हरि का नामु सदा सुखदाता सहजे हरि रसु पीजै ॥१॥ रहाउ ॥ (पृ 1334)
गुरु अमरदास जी ने अपने निजी अनुभव के आधार पर इस सत्य को भली-भांति समझा दिया है कि हरी परमेश्वर केवल सतगुरू के उपदेश से ही प्राप्त किया जा सकता है। परमेश्वर रूपी नामधन हमारे हृदय में ही है, पर यह धन सच्चे गुरू के मार्गदर्शन के बिना दिखाई नहीं दे सकता है।
सतिगुर ते हरि पाईऐ भाई ॥ अंतरि नामु निधानु है पूरै सतिगुरि दीआ दिखाई (पृ 425)
सच्चे परमेश्वर को, जो पूरी तरह मैल – रहित है, गुरु के उपदेश के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यथा :
सचा साहिबु एकु है मतु मन भरमि भुलाहि ॥ गुर पूछि सेवा करहि सचु निरमलु मंनि वसाहि॥ (पृ 428)
सतगुरु की सेवा अपने आप में बहुत बड़ा संघर्ष है। सतगुरु की सेवा द्वारा सभी दुखों का नाश करने वाला परमेश्वर, हमारे मन में बस जाता है। यथा :
गुर सेवा तपां सिरि तपु सारु ॥ हरि जीउ मनि वसै सभ दूख विसारणहारु ॥ (पृ 423)।
वह मनुष्य आत्मिक सुख न होने के कारण, सदा दुखी रहते हैं। जो सतगुरू के उपदेश की कमाई रुपी सेवा नहीं करते। यथा :
जिनी पुरखी सतगुरु न सेविओ से दुखीए जुग चारि ॥ (पृ 34 )
गुरुहीन मनुष्य आत्मिक तौर पर सदा अचेत रहते हैं और मृत्यु के भय में ही बचे रहते हैं। सच्चा आत्मिक कल्याण गुरू उपदेश द्वारा ही हो सकता है। यथा :
बाझहु गुरू अचेतु है सभ बधी जमकालि ॥ नानक गुरमति उबरे सचा नामु समालि ॥ (पृ 30)
गुरू अमरदास जी ने बड़े सीधे शब्दों में यह बात समझाई है कि गुरु के बिना परमेश्वर की भक्ति हो ही नहीं सकती। गुरू ही परमेश्वर की सच्ची भक्ति करने का तरीका सिरदलाने की सामर्थ्य रखता है। यथा :
भाई रे गुर बिनु भगति न होइ ॥ बिनु गुर भगति न पाईऐ जे लोचै सभु कोइ ॥ (पृ 39)