केवल गुरबाणी से मार्गदर्शन लेने की आवश्यकता (Shri Guru Amar Das Ji) - Only Need to Take Guidance from Gurbani

केवल गुरबाणी से मार्गदर्शन लेने की आवश्यकता (Shri Guru Amar Das Ji)

गुरबाणी ही इस संसार में आत्मिक मार्ग को रोशन करने के लिए प्रकाश स्तंभ का काम करती है। सतगुरु के सच्चे मत के विपरीत जाने वाली हर बाणी, निश्चित तौर पर कच्ची समझनी चाहिए और इनको कहने, सुनने तथा मानने वाले सभी लोग कच्चे होते हैं। यथा :

गुरबाणी इसु जग महि चानणु करमि वसै मनि आए ॥१॥ (पृ 67) सतिगुरु बिना होर कच्ची है बाण ॥ बाणी त कची सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी ॥ कहदे कचे सुणदे कचे कचीं आखि वखाणी ॥

(रामकली म 3 अनंद,९२०)

जिन बाणी सिउ चितु लाइआ से जन निरमल परवाणु ॥ नानक नामु तिन्हा कदे न वीसरै से दरि सचे जाणु ॥

(आस्सा महला ३. पृ 429)

(१) मायाः

मनुष्य द्वारा प्रभु मिलन की राह में माया बहुत बड़ी रुकावट है। प्राचीन ग्रंथों में माया के कई रूपों का वर्णन किया गया है। जैसे जड़ – माया व चेतन माया, या कंचन माया व कामिनी माया, अर्थात धन, जमीन, जायदाद व स्त्री बच्चे, रिश्तेदार संबंधी आदि को माया कहा गया है। गुरमत में घर – घाट, जमीन जायदाद, धन-दौलत, स्त्री-बच्चों आदि को त्याग देने का उपदेश नहीं दिया गया बल्कि इन के मोह में फंसने को माया कहा गया है। इस मोह से बचने का उपदेश दिया गया है। कोई भी चीज जिसके संपर्क में आ कर हमारा परमेशवर के संग प्यार टूट जाए वृष्ण का विकार पैदा हो जाए, हरी भूल जाए और हरी को त्याग कर अनात्मिक तत्वों से मोह हो जाए, उस वृत्ति को माया कहा जा सकता है। माया के इस ताप से मनुष्य को अत्यंत दुखी होना पड़ता है। जैसे शास्त्रों में जठरागिनों का बहुत भयंकर रोग बताया गया है, संसार में विचरण करते हुए माया का दुख भी उसी तरह बहुत तीखा रोग है। जो मनुष्य गुरू की कृपा द्वारा प्रभु के साथ ध्यान जोड़ लेते हैं, वे माया में विचरण करते हुए भी उससे निर्लिप्त रह कर प्रभु को पा लेते हैं।

माया के दुरवों से केवल गुरू के शबद उपदोश द्वारा ही बचा जा सकता है। माया का सुख क्षण- भंगुर है और किसी समय भी यह मनुष्य का साथ अचानक छोड़ देते हैं, जिस के कारण मायावादी रुची वाला मनुष्य उसका साथ छूट जाने पर दुखी होता है। माया नागिन की तरह प्रत्येक जीव को चिपटी हुई है और जो मनुष्य भी इसका गुलाम बन कर इसकी सेवा करता है, यह उसी मनुष्य को डस लेती है। माया कामोह, काम, क्रोध और अहंकार मान भूत हैं, यह सब यम के अधीन हैं और इन पर केवल यम का ही आदेश चलता है और इनकी राह पर चलने वाले अंततः यम के वश में ही पड़ जाते हैं। माया का मोह अज्ञान में से पैदा होता है और इस पर विजय प्राप्त करना बहुत मुश्किल काम है। माया के सर्प का जहर परमेश्वर के नाम द्वारा बुझाया जा सकता है जो केवल गुरू से ही प्राप्त किया जा सकता।

मूर्ख व अज्ञानी पुरुष उस धन को एकत्र करते हैं जो सदा साथ नहीं चल सकता। इस कच्चे धन द्वारा दुख ही दुख पैदा होता है। यह धन करतार का एक वेल मात्र है, कभी मनुष्य को प्राप्त हो जाता है और कभी इस से वह छिन जाता है। गुरू ज्ञान का धारणकर्ता परमेश्वर के नाम व प्यार को असली व सदा साथ निभने वाला धन समझती है। वैसे दुनियावी धन का मोह अपने आप में एक विशाल कठिन भव्य सागर के समान है, जिस को तैर कर पार करना बहुत कठिन है। मैं, मेरी की अहं भावना में मनुष्य का आत्मिक जीवन तबाह हो रहा है।

गुरु अमरदास जी ने बहुत कठोर शब्दों में मनुष्य को चेतावनी दी है और कहा है, ‘हे मन की अगवाई में चलने वाले मूर्ख मनुष्य! तू मायावादी पदार्थों को नियंत्रित करके रख, इनमें व्यसित होकर प्रभु को मत भूल। अंत में संसार यात्रा समाप्त होने पर यह तेरे साथ नहीं जाने का और यह यहीं पर रह जाएगे। माया का मोह पागलपन से बढ़कर और कुछ नहीं। मनुष्य इस पागलपन में अपने आप को रवराब कर रहा है। माया का मोह अपने आप में एक भयानक गुब्बार है, जो इतने व्यापक रूप में फैला हुआ है कि उसके आर-पार के किनारों का पता ही नहीं चलता है। मन की अगवाई में चलने वाले मनुष्य परमेश्वर को भूल कर बहुत दुख भोग रहे हैं। इस विषय के बारे में गुरु अमर दास जी की बाणी में इस प्रकार वर्णन किया गया है:

जैसी अगनि उदर महि तैसी बाहरि माइआ ॥ माइआ अगनि सभ इको जेही करतै खेलु रचाइआ ॥ जा तिसु भाणा ता जमिआ परवारि भला भाइआ ॥ लिव छुड़की लगी त्रिसना माइआ अमरु वरताइआ ॥ एह माइआ जितु हरि विसरै मोहु उपजै भाउ दूजा लाइआ ॥ कहै नानकु गुर परसादी जिना लिव लागी तिनी विचे माइआ पाइआ ॥ (रामकली, महला ३, अनंदु -पृ ९२१)

नानक माइआ का मारणु सबदु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ (पृ ८५३)

माइआ खोटी रासि है एक चसे महि पाजु लहि जाइ ॥ हथहु छुड़की तनु सिआहु होइ बदनु जाइ कुमलाइ ॥

(गूजरी की वार, महला ३, पृ ५१०) माइआ होई नागनी जगति रही लपटाइ ॥ इस की सेवा जो करे तिस ही कउ फिरि खाइ ॥

(गूजरी की वार, भहली ३, पृ ५१०) माइआ मोहु परेतु है कामु क्रोधु अहंकारा ॥ एह जम की सिरकार है एन्हा उपरि जम का डंडु करारा ॥

(गूजरो की धार, महला ३, पृ ५१३) माइआ मोहु अगिआनु है बिखमु अति भारी ॥

(गूजरी की वार, महला ३, पृ ५०९) माइआ भुइअंगमु सरपु है जगु घेरिआ बिखु माइ ॥ बिखु का मारणु हरि नामु है गुर गरुड़ सबदु मुखि पाइ ॥

(सलोक यारा ते वधीक, महला ३, पृ १४१५) : काचा धनु संचहि मूरख गावार ॥ मनमुख भूले अंध गावार ॥ बिखिआ कै धनि
सदा दुखु होइ ॥ ना साथि जाइ न परापति होइ ॥ (धनासरी, महला ३, पृ ६६५) इहु धनु करते का खेल है लदे आने को जाइ ॥ गिखानी का धनु नामु है सद ही की समाइ॥

(वार मलार, महला ३, पृ १३८२) माइआ मोहु दुखु सागरु है बिखु दुतरु तरिआ न जाइ ॥ मेरा मेरा करदे पचि मुए हउमै करत विहाइ ॥

(सलोक, महला ३, पृ १४१६) माइआ वेखि न भुलु तू मनमुख मूरखा ॥ चलदिआ नालि न चलई सभु झूठु दरबु लखा ॥

(मारू की वार, महला ३, पृ १०८७) माइ मोहु सभु बरलु है दूजे भाइ खुआई राम ॥ माता पिता संभु हेत है, हेते पलचाई राम ॥ (इहंस, महला ३, पृ ५७१) माइआ मोहु गुबारु है तिस दा न दिसै उरवारु न पारु ॥ मनमुख अगिआनी महा दुखु पाइदे डुबे हरि नामु विसारि ॥

(सिरोराग की वार, महला ३ पृ ८९}

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