सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़िआ लगि जलनि ॥
नानक सतीआ जाणीअन्हि जि बिरहे चोट मरंन्हि ॥१॥भी सो सतीआ जाणीअनि सील संतोखि रहंन्हि ॥ सेवनि साई आपणा नित उठि संम्हालंनि ॥
(सूही महला 3, पृ ७८५७)
यहां के हिंदू समाज ने स्त्री जाति के बारे में अजीब मान्यताएं धड़ खी थीं। अन्य भौतिक पदार्थों की तरह स्त्री, मनुष्य की निजी संपत्ति थी। इस को अन्य भौतिक पदार्थों की भाति दान (ब्राहमणों को) में दिया जा सकता था। आवश्यकता पड़ने पर वह जुए में हारी जा सकती थीं। शूद्र होने के कारण वह जनेऊ (यज्ञोपवीत धारण नहीं कर सकती थी। जिस अभाग्यशाली स्त्री का पति कालवास हो जाता, उस को अपने पति की चिता के साथ ही जाल मरना पड़ता था। इस कुरीति को सती का नाम दिया गया था। यह निश्चय ही हृदय विदारक, अमानवीय तथा अत्याचारी प्राकृति की रीति थी। यदि स्त्री मर जाय तो पति पुनः विवाह करवा सकता था परंतु पति मर जाए तो स्त्री को जिंदा ही उसकी चिंता के साथ जला दिया जाता था। प्राचीन धार्मिक शास्त्रों तथा ग्रंथों में अंकित प्रावधानों का, इरा से बड़ा अत्याचार और क्या हो सकता हैं?
गुरू साहिबान ने समाज में स्पष्ट तौर पर यह प्रचार किया कि वह स्त्री सती नहीं कही जा सकती जो पति की चिता के साथ जल मरती है। सती वह स्त्री है जो पति के बिछोड़े की चोट को सहते हुए, प्रभु के आदेश में रहकर आदर्श जीवन व्यतीत करती है! वह स्त्रियां भी सती हैं जो ऊचे आचरण और संतोष के गुणों को धारण किये रखती हैं, अपने पति की सेवा करती हैं और नित्य प्रति सावधान हो कर अपने इस कर्तव्य को निभाती हैं। गुरु नानक पातशाह ने, स्त्री को पुरुष के मुकाबले पर नीच या बुरा नहीं माना है। उन्होंने साफ कहा कि उस स्त्री को नीच कैसे कहा जा सकता है जिसकी कोख से बड़े- बड़े महापरूष, राजा तथा धर्मात्मा पुरुष जन्म लेते हैं। इतिहासकार लतीफ के अनुसार भी, मुरू अमरदास जी ने अपने सिख समाज में से सती जैसी अमानवीय तथा दिल को दहला देने वाली तथाकथित रस्म अथवा अत्याचार को पूर्ण तौर पर रद्द कर दिया था। जी बी स्कॉट के अनुसार गुरु साहिब सब से पहले ऐसे मुख्य सुधारक थे, जिन्होंने सती की अत्याचारपूर्ण रीति के विरुद्ध आवाज बुलंद की। समाज में व्यभिचार न बढ़े, यह सोच कर आवश्यकता के अनुसार विधवा विवाहों का भी प्रचार कियो। सती की रस्म को कानूनन बंद करवाने के लिए (अपने उत्तराधिकारी गुरु रामदास जी को हिदायत की कि वे बादशाह अकबर के साथ बातचीत करें ताकि कानूनी शक्ति द्वारा इस अत्याचारपूर्ण बर्बर रीति को बंद किया जा सके।
स्त्री जाति के साथ इतना भेदभाव शास्त्रीय मत ने कर रखा था कि हर पक्ष से इसकी अधोगति झलकती थी। धर्म कर्म तथा सामाजिक सरगर्मियों में भाग लेना तो कहीं रहा, अलग- अलग रीतियों के भार से उसको इतना बोझिल कर दिया गया था कि वह ऊपर उठ भी नहीं सकती थी। युवा स्त्री, यदि विधवा हो जाए तो उसको पुनर्विवाह की। अनुमति नहीं थी। इस कुरीति के फलस्वरूप विधवा स्त्री का जीवन केवल नर्क बन जाता था क्योंकि उसकी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कोई साधन आम तौर पर नहीं रहता था। फिर, इस कुरीति के कारण समाज में व्यभिचार बढ़ने के अवसर पैदा होते रहते थे। स्त्री को समाज में खुले रूप में विचरण करने की आज्ञा नहीं थी। वह नगन मुरव हो कर अन्य लोगों के सामने नहीं जा सकती थी। उसको पर्दे में रहना पड़ता था। यदि अधिक जरूरत होती तो घूघट निकालकर, भाव , मुंह, चेहरा, नाक आदि पूरी तरह से ढंक कर रहना पड़ता था। ये कुरीतियां स्त्री जाति के स्वास्थ्य के लिए ही हानिकारक नहीं थी, बल्कि इन रस्मों से स्त्री जाति के मन में व्यक्त न की जा सकने वाली आत्महीनता का भाव पैदा होने की स्वाभाविक बात थी! इससे स्त्री के व्यक्तित्व का विकास भी संभव नहीं रह पाता। हरीपुर के राजा की साखी से गुरू पातशाह की इसी शिक्षा का संकेत मिलता है। इस साखी के द्वारा उन्होंने सब रानियों तथा स्त्रियों को घूघट निकालने की कुरीति का त्याग करने को कहा था। यह बीमारी अब हमारे समाज में आम तौर पर तो नहीं रह गई है, पर अनंद कारज (विवाहोत्सव) के अवसरों पर यह नाटक, गुरु पातशाह की हजूरी में वधु द्वारा अभी भी दांव लगने पर कर लिया जाता है। गुरमत पर चलने वालों को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए।