श्री गुरु अमर दास जी की जीवनी - Shri Guru Amar Das Ji Introduction

श्री गुरु अमर दास जी की जीवनी

साहिब सतगुरु अमरदास जी का जन्म 5 मई सन् 1479 में, बासरके गांव (अमृतसर से लगभग पांच मील की दूरी पर) हुआ। आपके पिता का नाम श्री तेजभान भल्ला व माता का नाम लखमी जी था। देसी हिसाब से आपका जन्म 8 ज्येष्ठ संवत 1536 को हुआ। चंद्रमा की तिथियों के अनुसार यह दिन बैसारखे सुदी 34 का है। इस तरह स्पष्ट हैं। कि आयु में आप श्री गुरू नानक देव जी से दस वर्ष छोटे थे।

बासरके में श्री तेजभान जी खेतीबाड़ी करते और कुछ व्यापार दुकानदारी आदि का काम भी करते थे। आपके चार भाई थे जो सब वेतीबाड़ी और व्यापार आदि का काम ही करते थे। सन् 1503 में (31 माध संवत 1559) को आपका विवाह गांव सणखत्रे में देवों चंद बहल क्षत्रीय की बेटी राम कौर से हुआ। बासरके से सणवत्रा गांव 50-60 मील की दूरी पर है और यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में है! आपके घर दो लड़कों – बाबा मोहन व बाबा मोहरी, तथा लड़कियों – बीबी भानी जी व बीबी दानी (निधानी) जी ने जन्म लिया।

खाते पीते परिवार के होने के साथ-साथ उस समय आप हिंदुओं में प्रचलित धार्मिक कर्मकांडों में बहुत श्रद्धा व विश्वास रखते थे। ये कर्म कांड थे – जप, तप, पुन्य, दान, देवी देवताओं की पूजा, हिंदू मंदिरों की यात्रा व तीर्थ स्नान, दिनों, त्यौहारों को शुभ-अशुभ के भेदों द्वारा मानना, ऊंच नीच जाति का भेद करना, खान-पान के मामले में शुचि आदि का भेद भाव रख कर विचरण करना आदि। ये संपूर्ण कर्म कांड, गुरु अमरदास जी ने भी सिख में प्रवेश होने से पूर्व जी भर कर किये थे। सन 1521 में जब आपकी आयु 42 वर्ष की थीं, आप हरिद्वार आदि तथा की यात्रा पर गये। फिर ये कर्म कांड जो हिंदू धर्म की जी जान थे, को आप, 1541 ई. तक लगभग 20 वर्ष तक निभाते रहे। हिंदू रीति में ब्राहमण की बहुत मान्यता है और इस पक्ष को पूरा करने के लिए वह ब्राह्मणों को, अपनी सामर्थ्ययानुसार उचित दान देने में, बहुत विश्वास रखते थे।

उस मत के अविलंबियों के मन में पंडितों, ज्योतिशियों, साधु पहरावे में विचरण वाले पाखंडियों और ब्रह्मचारियों के प्रति बहुत ही श्रद्धा व सम्मान होता था। ये प्रवृतियां आज भी इस मत के धारणकर्ताओं में काफी देखी जा सकती है। सिखी धारण करने से पूर्व गुरु अमरदास जी के मन में भी इस प्राचीन मत के लिए अगम्य श्रद्धा थी, जिस के कारण आप की धार्मिक गतिविधियां, रूचिया व स्वभाव आदि उसी हिंदवाणी शैली के थे।

यह बात पक्की है कि आप की लगन बहुत गंभीर और पक्की थी। यह बात अलग है कि साधना-विधि प्राचीन हिंदू मत की थी, जिससे केवल संबंधित फल ही आपको मिल सकता था। उस साधना विधि के द्वारा केवल मात्र कर्मकांडों का घर पूरा करने से प्रभु की प्राप्ति कैसे हो सकती थी? पर हम आपकी बहुत गहरी व पक्की लगन को नजर अंदाज नहीं कर सकते। गंगा आदि नदियों व तीर्थ स्थानों के स्लान और तीर्थ यात्राएं करना कोई आसान काम नहीं था। फिर, उसी काम पर लगे रहना आपके समर्पण और दृढ़ वृत्ति को भली-भांति स्पष्ट करता है। यातायात के वर्तमान साधन – बसें, रेल- गाड़ियां, जहाज आदि का तो उस समय अस्तित्व ही नहीं था। घर ग्रहस्थी में से इतना समय निकाल लेने व यात्राओं की कठिनाइयां सहन करना, पक्की लगन के बिना संभव नहीं था। उस समय की यात्राएं खतरे से खाली नहीं हुआ करती थीं। यात्रियों के पास, तीर्थ-रटन का केवल एक ही चार था कि वे शक्तिशाली काफिले या संग साथ बना कर, इकट्ठे हो कर यात्रा करें । याद रहे कि सन 1541 में आप 21वीं बार हरिद्वार गंगा की यात्रा पर स्नान के लिए गये थे।

आम तौर पर शाही सड़कों और आम चलते हुए तों के द्वारा से यात्रा की जाती थीं चाहे इस तरीके से कई बार अधिक लंबा रास्ता तय करना पड़ता था। प्रमुख मार्गों के किनारे, समय की आवश्यकता अनुसार धार्मिक रूचियों वाले लोगों ने विश्राम गह बना रखे थे। ये विश्राम स्थल कई बार गांवों की पंचायतों अथवा नगरों के धनाढ्य व्यक्तियों द्वारा अपने धर्म प्रेम को प्रकट करने के लिए बनाये जाते थे और कई बार मंदिरों, शिवालयों वाले भी ऐसे अरामगृह जनता की भलाई को दृष्टि में रख कर कायम कर दिया करते थे। कई बार कई संत साधु और ब्राह्मण आदि धार्मिक रूचियों वाले व्यक्ति भी ऐसे टिकाने बना कर रखा करते थे जिस से एक तो किसी सीमा तक वे अपनी धर्म भावना को लोक सेवा की रखुराक के बहाने शांत कर लिया करते थे, व दूसरे इन टिकानों पर टिकने वाले और रैण बसेरा करने वाले यात्री प्रस्थान के समय, इन संतों साधुओं, ब्राह्मण डेरेदारों की सामर्थ्यानुसार दान द्वारा सहायता भी कर जाते थे, जिससे उन की वाहवाही हो जाती थी।

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