भगता की चाल निराली ॥ चाला निराली भगताह केरी बिखम मारगि चलणा ॥ लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाही बोलणा ॥
खंनिअहु तिखी वालहु निकी एतु मारगि जाणा ॥ गुर परसादी जिनी आपु तजिआ हरि वासना समाणी ॥ कहै नानकु चाल भगता जुगहु जुगु निराली ॥१४॥
(रामकली महला 3, अनंद पृ 918)
हिंदू मूले भूले अखुटी जांही ॥ नारदि कहिआ सि पूज करांही ॥ अंधे गुंगे अंध अंधारु ॥ पाथरु ले पूजहि मुगध गवार ॥
(वार बिहागड़ा, महला 1, पृ 256)
गुरु अमरदास जी ने सिरवी का यह पहलू आरंभ में ही दृढ़ता से सिखों को समझा दिया था कि गुरमत की जीवन शैली पराधर्मों से बिल्कुल भिन्न और स्वतंत्र है। यह बात भी स्पष्ट कर दी कि एक अरसे से मनमत तथा दूसरे धर्मों की जो छटाएं हम अपने ऊपर लादे चले आ रहे हैं, उनको त्यागना कोई आसान बात नहीं है। इन छटाओं में बेशुमार चिथड़े से नियम हैं जो हमारे आत्मिक जीवन के लिए बोझ तुल्य हैं।
पर अरसे तक इन पर चलने के कारण हमारा इनसे इतना मोह हो गया है कि हम इन को आसानी से त्याग भी नहीं सकते। यह महसूस करने हुए भी कि इन के साथ हमारे जीवन में अशानि, कलह क्लेश आदि हो पैदा हो रहे हैं, हम इन को छोड़ने में कठिनाई महसूस करते हैं। गुरु अमरदास जी ने सिख में दाखिल होने से पूर्व वर्षों तक ब्राहमणी मन के सिद्धांतों व नियमों का बहुत कट्टरता से पालन किया था। तीर्थ यात्राओं, गंगा स्नानों, वर्णाश्रमी कर्मकांडीय भेदपूर्ण व्यवस्था के विश्वास को खूब निभाया था। चाहे इन साधनों द्वारा आज तक किसी को भी आत्मिक शाति प्राप्त नहीं थी हुई, पर फिर भी इन सब नियमों को जिज्ञास, अपनी छाती से इस तरह लगाए हुए चलता था जैसे बंदरी अपने मरे हुए बच्चे को एक अवधि तक छाती से लगाए रखने का निष्फल प्रयास करती है। वास्तविकता का ज्ञान हो जाने पर भी इन गलत नियमों तथा जीवन युक्तियों का त्यागना आम जिज्ञासु के लिए कितना कठिन होता है, इस बात को गुरदेव भली भांति जानते थे। दूसरी ओर यह बात समझना भी बहुत जरूरी है कि अन्य मतों तथा मनमतों की छटा उतार फेंके बिना, गुरमत ज्ञान का जलवा भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता।
इस संबंध में गुरु अमरदास जी की दीर्घ दृष्टि को हम, आप की ऐतिहासिक साखियों और बाणी में से छलकता देख सकते हैं। आरंभ से लेकर वर्तमान दशक तक के बुद्धिजीवियों, विद्वानों व पंथ-दर्दयों को अलग- अलग ढंग से ऐसे प्रयास करने पड़ रहे हैं, जिनके द्वारा वे आम लोगों के भुलेखों को दूर करके समझा सकें कि सिख मत एक बिल्कुल न्यारा, स्वतंत्र और संपूर्ण मत है। किसी प्रकार भी इसको हिंदू मत की एक शारव नहीं कहा जा सकता। इस भ्रम को दूर करने के लिए भाई साहिब काहन सिंघ नाभा आदि अनेकों विद्वानों को हम हिंदू नहीं आदि पुस्तकों की रचना करनी पड़ी। गुरबाणी में दर्शाए विचारों, सिख फलसफे और सिख इतिहास में से यह भुलेखा पड़ने की गुंजाइश तो नहीं, पर प्रचार की कमी के कारण और ब्राहमण भाऊ की शातिर और शातिर चालों के कारण, अनेकों लोग इस दुविधा और भुलेखे का शिकार बनते रहे हैं, और अभी भी भ्रमित हो रहे हैं कि सिख मत शायद हिंद मत की एक शाख मात्र ही है। बाणी में सतगुरु साहिबान ने ही नहीं, भक्तों ने भी इस विषय के संबंध में बहुत दृढ मत व्यक्त किए है। यथा :
बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥ सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥
कटी न कटै तूटि नह जाई ॥ सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥
(गउड़ी कबीर जी पृ ३२९)
ना हम हिंदू न मुसलमान ॥ अलह राम के पिंडु परान ॥४॥
(पृ 1636) –
हमरा झगरा रहा न कोऊ ॥
पंडित मुलां छाडे दोऊ ॥१॥ रहाउ ॥।पंडित मुलां जो लिखि दीआ ॥
छाडि चले हम कछू न लीआ ॥३॥
(भेरउ, कबीर जी पृ ११५८)
बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई ॥ ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई ॥१॥
(सोरठि, कबीर जी पृ ६५६)
बेद कतेब इफतरा भाई, दिल का फिकरु न जाइ ॥
(तिलंग, कबीर जी पृ ७२७ }
पडीआ कवन कुमति तुम लागे ॥ बूडहुगे परवार सकल सिउ रामु न जपहु अभागे ॥१॥ रहाउ ॥
(मारू कबीर जी पृ ११०२)
हिंदू अंना तुरकू काणा दोहां ते गिआना सिआणा ॥ हिंदू पूजै देहुरा मुसलमाणु मसीत ॥ नामें सोई सेविआ जह देहुरा न मसीत ॥
बिलावल गौड़, नामदेव जो पृ ८७५
बेद पुरान सासत्र आनता गीत कबित न गावअुगो ॥
(रामकली, नामदेव जी पृ 972)
गइआ पिंडु भरता ॥ बनारसि असि बसता ॥ मुखि बेद चतुर पड़ता ॥२॥ सगल धरम अछिता ॥ गुर गिआन इंद्री द्रिड़ता ॥ खटु करम सहित रहता ॥३॥ सिवा सकति संबादं ॥ मन छोडि छोडि सगल भेदं ॥
(गोंड, नामदेव जी पृ 873)
भैरउ भूत सीतला धावै॥ खर बाहनु उहु छारु उड़ावै॥ हउ तउ एकु रमईओ लैहउ॥ आन देव बदलावनि दैहउ॥
(गौंड, नामदेव जी पृ 874)
पांडे तुमरी गाइत्री, लोधेका खेतु खाती थी ॥ लै करि ठेगा टगरी तोरी, लांगत लांगत जाती थी ॥१
बिलावल गौंड, नामदेव जी पृ 874)
गुरमत का सैद्धांतिक और सांस्कृतिक पक्ष से साधारण सा अध्ययन करने से ही स्पष्ट हो जाता है कि सिख मत अपने आप में एक स्वतंत्र संपूर्ण और हिंदू मुसलमान से बिल्कुल न्यारा मत है। वास्तव में मुसलमानों द्वारा गुरमत को इस्लाम वाली दिशा में खींचने का, न के बराबर यत्न हुआ है और इस बारे में आम लोारों को भ्रम भी कोई नहीं हुआ। जबकि धर्मो का तुलनात्मक अध्ययन सिख मते और इसलाम में इतनी निकटता दर्शाता है जिसकी तुलना में सिख मत और हिंदू मत के सिद्धांतों में लेश मात्र भी निकटता नहीं है। पर क्योंकि सिखों की अधि संख्या हिंदुओं में से सिख बनी है और आज तक अनेकों हिंदू खानदानों में कुछ व्यक्ति सिखी स्वरूप में मिल जाते हैं, इस बारे में गलतफहमी हो जाना स्वाभाविक सी बात थी। क्योंकि सिवी का खुले रूप से प्रचार करने की आवश्यकता को हम लोगों ने अभी तक महसूस नहीं किया है।
एक अवधि तक मुसलमानों के अत्याचारों से हिंदुओं को बचाने के लिए सिरखों ने जो बेइंतहां कुर्बानियां कीं, सिर धड़ की बाजी लगा कर हिंदुओं की रक्षा के लिए दशकों तक लगातार जिन लंबी जदो- जहिद में सिख कौम को व्यस्त रहना पड़ा, उसने भी यह भुलेरखा पैदा करने में बड़ी मदद की है कि हिंदू और सिख तो एक हैं। इस कारण लोग स्थापित करने लगे कि सिखी का केवल इसलाम मात्र से वैर है। वास्तव में बात ऐसी नहीं है जितनी कुर्बानियां सिख कौम के बजुर्गों को हिंदुओं के लिए करनी पड़ीं इतनी तो कोई कौम अपने अस्तित्व के लिए भी दे सकने का साहस नहीं कर सकती। अत: मुद्दा यह कि भुलेरखा पड़ जाना स्वाभाविक तथा साधारण बात थी। वैसे सैद्धांतिक पक्ष से अवलोकन करने पर हम पाएंगे कि दोनों मत परस्पर विरोधी हैं। ब्राहमणी मत लाख हाथ पैर मारे, मूलक, पालक, चौंके कार आदि के वहमों से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता। इधर सिख मत में इन सुनैहरी धुंध से भरपूर सिद्धांतों को लगभग मूर्खता के निकट गिना जाता है। श्राद्धों, किरियाओं, मंत्रों-जंत्रों, ग्रह चक्रों, थिति वार आदि युगों के अच्छे बुरे होने वाले विश्वासों, शगुन अपशगुन तथा शुभ अशुभ मुहूर्ता की। पुरजोर पुःि किए बिना ब्राहमण मत, अपनी सारी चमक दमक गंवा बैठेगा, जबकि इन वहमों में राई मात्र यकीन रखने वाला पुरुष भी सिवी के सिद्धांतों के अनुसार सिरवी से बेवफा समझा जाता है। ब्राहमणी मत वाले के लिए देवी देवताओं तथा अवतारों में विश्वास रखना ही नहीं, उन की मूर्तियों तथा मूर्तियों की पूजा, अर्चा, तर्पण, भोग आदि को भी जरूरी अंग माना गया है। सिख मत में वाहिद एक परमेश्वर को छोड़कर और किसी हस्ती में विश्वास करना और कर्मकांडों की दलदल में अपने आप को फसाना, धर्म से बागी होने के तुल्य समझा जाता है। ब्राहमणी मत के अनुसार जाति वरण के भेदभाव को तोड़ना अपनी लचकदार कमर तोड़ लेना है जबकि सिखी सिद्धांत के अनुसार इस बेढंगी कमर को तोड़े बिना धर्म के सुंदर महल का निर्माण संभव नहीं है। गुरमत में व्रत संबंधी कर्मकांडों के लिए कबीर साहिब ने गदही होइ के अउतरै भार सहै मन चार का दंड विधान निश्चित किया है। हिंदू मत, वेद विश्वासी मत है और फिर हिंदू मत, पूजा अर्चा में विष्णु के अवतारों को महान स्थान प्राप्त है जबकि वेदों और अवसारों को सिख मत में नीचे अंकित गुरबाणी वाक्यों के अनुसासर, शून्य समझा गया है, क्योंकि सिख मत का अधार केवल गुरबाणी और अकाल पुरख ही हैं, वेद और अवतार नहीं! यथा :
पड़ि पड़ि पंडित मोनी थके बेदां का अभिआसु ॥ हरि नामु चिति न आवई नह निज घरि होवै वासु ॥
(मलार भहला ३ पृ १२७१७)
बेद पड़हि हरि नामु न बूझहि ॥ माइआ कारणि पड़ि पड़ि लूझहि ॥
(मारु महला 3, पृ [050)
पडत मैलु न चूकई जे वेद पड़े, जुग चारि ॥
(सोरठि महला 3 पृ 1050)
सिम्रिति सासत्र पुंन पाप बीचारदे ततै सार न जाणी ॥
(रामकली महला 4 अनंद पृ १20)
बेद बाणी जग वरत्तदा वैगुण करे बीचारु॥ बिनु नावें जमडंडु सहै, भरि जनमै वारो वार॥
(मलार महला ३ पृ 1276)
ब्रहमा मूलु वेद अभिआसा ॥ तिस ते उपजे देव मोह पिआसा ॥ त्रै गुण भरमे नाही निज घरि वासा ॥
(गउड़ी भहला ३, पृ 230)
त्रै गुण बाणी बेद बीचारु ॥ बिखिआ मैलु बिखिआ वापारु ॥
(मलार महला ३, पृ 1262)
गुरेबष्ण वरत जग अंतर, इसु बाणी ते हरिनामु पाइदा ॥
(मारू, महला 3, 9 1066)
गुरबाणी इसु जग महि चानणु ॥
(सिरी राग महला ३, पृ ६७)
सतिगुरू बिना, होर कची है बाणी ॥ कहदे कचे, सुणदे कचे, कची आखि वखाणी ॥
(रामकली महला 3, पृ 220)
अवतारों के बारे में :
जुगह जुगह के राजे कीए गावहि करि अवतारी ॥ तिन भी अंतु न पाइआ ता का किआ करि आखि वीचारी ॥
(आसा, भहला ३, पृ 423)
अवतार न जानहि अंतु ॥ परमेसरु पारब्रहम बेअंतु ॥१॥
(रामकली, महला ६, पृ 894)
दस अउतार राजे होइ वरते महादेव अउधूता ॥ तिन्ह भी अंतु न पाइओ तेरा लाइ थके बिभूता ॥
(सूही, महला 5, पृ 747)
पांडे तुमरा रामचंदु सो भी आवतु देखिआ था ॥ रावन सेती सरबर होई घर की जोइ गवाई थी ॥
(बिलावल, गौंड, नामदेव जी, पृ 875)
जुज महि जोरि छली चंद्रावलि कान्ह क्रिसनु जादमु भइआ ॥
(आसा, महला 1, पृ 470)
ब्राहमणी मत के लिए यह जरूरी था कि देवी देवताओं, ब्राहमण, विष्णु, महेश आदि सब को बहुत ऊंचा स्थान दिया जाय। एकीश्वर की भक्ति को दृढ़ करने के लिए इन वस्तुओं को भी शून्य समझना जरूरी है। गुरु अमरदास जी ने अपनी बाणी में इस कठिनाई का अच्छी तरह खंडन किया है और गुरमत सिद्धांतों को खुले शब्दों में निखार कर प्रकट कर दिया है। यथा :
महादेउ गिआनी वरतै घरि आपणै तामसु बहुतु अहंकारा ॥
(वडहंस, महला 3, पृ 559)
माइआ मोहे देवी सभि देवा ॥
(गउड़ी महला 3. पृ 227)
(यार बिलावल महला 3, पृ 852)
ब्रहमा बिसनु महादेउ चैगुण भूले, उमै मोहु वधाइआ॥ ब्रहमा बिसनु महेसु न कोई ॥ अवरु न दीसै एको सोई ॥ ब्रहमा बिसनु रुद्र तिस की सेवा ॥ अंतु न पावहि अलख अभेवा ॥
(मारू महला १, पृ 1035)
(मारू, महला ३, पृ 3053)
सदा सदा सो सेवीऐ जो सभ महि रहै समाइ ॥ अवरु दूजा किउ सेवीऐ जमै तै मरि जाइ ॥ निहफलु तिन का जीविआ जि खसमु न जाणहि आपणा अवरी कउ चितु लाइ ॥ नानक एव न जापई करता केती देइ सजाइ ॥१॥
(दार गूजरी, महला ३, पृ 509)
सिख सतगुरु साहिबान ने आरंभ से ही इस ओर अवश्यक ध्यान दिया था ताकि सिख मत एक स्वतंत्र, संपूर्ण तथा सार्वभौम मत का रूप धारण कर ले। समय के अनुसार हिंदू मत के अनेकों संस्कारों यथा जन्म संस्कार, यज्ञोपवीत (जनेऊ) संस्कार, विवाह संस्कार, मृतक संस्कार आदि से सिख मत के मानने वालों का पीछा छुड़वाया गया गुरू गोबिंद सिंघ जी ने सिखों को, अमृत संचार कराने के साथ ही विशाल ब्राहमणी संस्कारों से सदा के लिए मुक्त करवा दिया और इस बारे में गुरमत संस्कारों को दृढ़ता से लागू करा दिया। इस के फलस्वरूप स्वतंत्र तथा स्वस्थ सिख संस्कृति की नींव रखी गई। इस समय तक दूसरे धर्मों के सभी चिन्हों का भी पूर्ण तौर पर परित्याग कर दिया गया। केस, कड़ा, कंघा, कछैहरा, कृपाण आदि खालसा सभ्यता के चिन्ह अस्तित्व में आए।
सिख विचारधारा, सिख सभ्यता तथा सिख जीवनयुक्ति का न्यारापन कायम करने में गुरु अमरदास जी का महान योगदान है। इस संबंध में आप ने अपनी रची वाणी के द्वारा अपना स्थाई योगदान प्रदान किया। आप की बाड़ी में से अनेकों मिसालें इस मंतव्य के लिए ऊपर दी जा चुकी हैं! अब आपकी जीवन गाथा में से कुछ प्रासांगिक संदर्भ का वर्णन किया जाता हैं।
नाता है लंगर की मर्यादा अपने आप में सिखी के न्यारे अस्तित्व को दृढ करवाती है। हर जाति के लोग सेवा करने के विचार से केवल सफाई ‘ आदि के नियमों का पालन करते हुए लंगर पकाने में शामिल हो सकते थे। मनुष्यों के बीच, सभी प्रकार के भेदभाव दूर कर दिए गए थे। इन छूत छात के भेद भावों को जड़ से काटने के लिए सतगुरु साहिबान ने प्रत्येक सतसंगी के लिए लंगर में से श्रद्धा सहित प्रशादा सेवन करना अनिवार्य कर दिया था। सार्वजनिक बाउली जलकुंड के निर्माण ने भी सिख मत की न्यारी सभ्यता की बनावट में बहुत महत्वपूर्ण रोल अदा किंया था। ठीक है कि आज के समय में शायद इस बात की महानता आसानी से न समझ आ सके पर जाति पात के भेद भावों तथा छूत छात की भावनाओं से पूर्ण समाज में से सिख मत को मानने वालों को उभाड़ कर निकाल लेने पर, फिर उनमें भ्रातृत्व एकता पैदा कर देने में, सतगुरु साहिबान द्वारा बनवाई बाउली का महान योगदान था। भाई पारो की सलाह और विनती पर, गुरु अमरदास जी ने संवत 1624 विक्रमी की बैसाखी से सिखों का विशेष वार्षिक समारोह करवाना आरंभ किया। इससे सिख सभ्यता को निखारने में बहुत मदद मिली सारी सिख संगत का एक जगह पर एकत्र होना, साझे प्रोग्राम के बारे में विचार करना, गुरमत सिद्धांतों का विस्तार सहित प्रचार करना आदि, समय पाकर बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ। सिरवी प्रचार के साथ-साथ इस सालाना समारोह ने सिखों में एक कौम होने के अहसास को भी जागृत कर दिया। गुरु अमरदास जी ने अपने मुवी प्रचारकों का जीवन ऐसा साध कि वे अपनी न्यारी रहित मर्यादा द्वारा ही हर जगह पर विचरण करते थे! इससे सिखी का स्वतंत्र अस्तित्व बनना शुरू हो गया। आपने अपने भतीजे बाबा सावण मल को कुल्लू, कांगड़ा सुकेत आदि पहाड़ी क्षेत्रों में प्रचार करने को भेजा था। हरीपुर में ठहरते समय एकादशी व्रत वाला दिन आ गया। सावण मल जी ने व्रत रखने की हिंदू मर्यादा का पालन करने की जगह पर लंगर बनवाया और स्वयं लंगर सेवन करके दूसरों को भी सहभोज में निमंत्रित किया। सावण मल जी को राजा के सम्मुख पेश होना पड़ा पर सिखी की सीधी व स्पष्ट जीवन शैली व गुरबाणी विचारों से राजा इतना प्रभावित हुआ कि उसने सपरिवार मय अपने अमीरों वजीरों के सिरवी धारण कर ली।
अल्लायार पठान तथा मथो जैसी स्त्रियों को सिख धर्म के प्रचार के काम पर लगाना, एक क्रांतिकारी कदम ही था। स्पष्ट था कि सिखी के न्यारे भाईचारे में हिंदू मुसलमान आदि सभी जातियों, कौमों के लोग शामिल हो सकते हैं। इस नये तथा न्यारे भ्रातृत्व में स्त्रियों को भी प्रचार के काम पर लगा कर पुरुषों के बराबर अधिकार दिये जा चुके थे जिसका इस से पहले स्वपन लेना भी नींद स्वराब करने के समान था।
भाई प्रेम के साथ मथो का, और हरीपुर की रानी के साथ सच्चन सच्च का अंतर्जातीय विवाह भी सिखी की न्यारी लथा विश्वव्यापी मर्यादा का द्योतक है ।