
13July
युद्धों में जूझने के बारे में मालू शाह को उपदेश
गुरू अंगद देव जी का एक सिख, मालू शाह जो सैनिक जीवन व्यतीत कर रहा था, एक बार गुरू साहिब के पास अपनी शंका निवारण हेतु आया। भजन बंदगी संबंधी विचार सुन-सुन कर उसके मन में शंका उत्पन्न ले गयी कि सैनिक जीवन में केवल पाप ही पाप है। गुरू जी ने मालू शाह को इस बारे में ज़रूरी बातें समझा कर अपने सैनिक जीवन में उत्साह से धर्म कमाने की प्रेरणा दी। आपने फरमाया कि लड़ाई किसी पर ज़ोर, धक्का, जुल्म या अत्याचार करने के लिए नहीं लड़ी जानी चाहिए, धर्मात्मा व्यक्ति ने जंग, धर्म की रक्षा हेतु, गरीब मज़लूम की सहायता हेतु तथा जुल्म करने वालों को जुल्म से रोकने के लिए लड़नी है। यल करना चाहिए की धर्म विरोधी तत्व, बिना युद्ध के, प्रेम प्यार से समझ सके और दूसरों पर ज़ोर, धक्का तथा जुलम से हट जाये, पर दुष्ट प्रेम प्यार तथा तर्क से गलत राह त्यागने को तैयार न हो तो धर्मात्मा मनुष्य को पूर्ण उत्साह से निश्चिंत होकर दुष्ट धर्म विरोधी के साथ जूझ जाना चाहिए। फिर जूझते समय परिणाम की प्रवाह न करे और जान हथेली पर रख कर दुष्ट से हथियार छुड़वा कर दम ले। अन्य साधनों से जब दुष्ट सही राह पर न आये तो उस पर शस्त्र प्रहार करना पाप नहीं, बल्कि धर्म का काम है। शस्त्र विद्या का अभ्यास करना तथा शरीर को बलवान बना कर रखना, इसलिए ज़रूरी है ताकि आवश्यकता पड़ने पर धर्म की रक्षा की जा सके और ग़रीब, मज़लूम तथा निराश्रित को दुष्ट के ज़ोर ज़बर से बचाया जा सके। मनुष्य का कमज़ोर और बुज़दिल होना ही वास्तविक पाप है। धर्म तथा शूरवीरता का तो अच्छा सुमेल बनता है।