यदि दिन को निर्माण कार्य होता तो रात को गिरा दिया जाता। बड़े स्तर पर लोगों में यह फैला दिया गया कि वहां पर भूत-प्रतों का वास है, जिसके कारण मकान गिर जाते हैं। गोइंदे को भी यह भ्रम हो गया। नगर बसाने के लिए यह स्थान हर लिहज़ से बहुत रमणीय, खूबसूरत तथा बहुत मौके का था । गोइंदा गुरू अंगद साहिब के चरणों में हाज़िर हुआ और अपनी कामना प्रकट की। गुरू अंगद देव जी ने सिख की याचना पूरी करने के साथ-साथ लोगों का तथा गोइंदे का यह भ्रम भी दूर करने का निश्चय कर लिया कि वह जगह भारी है और वहां पर भूत-प्रेतों का वास होने के कारण; बस नहीं सकती। अपने अनन्य सेवक (गुरू) अमरदास जी को अपने पास बुला लिया। (गुरू) अमरदास जी की योजना के अनुसार सन् 1546 में नगर का निर्माण कार्य आरंभ हो गया और नगर दिन दूगना रात चौगुना तरक्की करने लग गया। गोइंदे ने अपनी आधी ज़मीन तो वैसे ही गुरू साहिबान को अर्पित कर दी थी। लोगों में फैले हुए श्रम-भुलेखे भी दूर हो गये। वैसे, यह नगर बसाने में गुरू अंगद देव जी के दो अन्य बड़े प्रयोजन भी थे। प्रथम यह कि आने वाले समय में सिख मत का मुख्य प्रचार केन्द्र खडूर से गोइंदवाल स्थानांतरित कर लिया जाय जिससे कुदरती तौर पर और अधिक क्षेत्र सीधे तौर पर सिख केन्द्र से संबधित हो जाना था और समय पा कर ऐसा ही हुआ।
सतगुरू साहिबान का इस प्रकार का नगर बसाने का द्वितीय प्रयोजन यह था कि सिख-प्रभाव का नगर स्थापित किये जाये जिनमें सिख सभ्यता तथा गुरमत रहत मर्यादा अधिक कारगार ढंग से प्रचलित से सके। यह योजना अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण है। पुराने नगरों की जगह पर नये नगरों में नवीन मर्यादा बांधने में तथा नवीन नियम और रीतियां लागू करने में अधिक अनुकूलता मिल जाती है, यह समूचे तौर पर नवीन मत के प्रचार में सहयक सिद्ध होती है। आज हम इस दृष्टिकोण के महत्व को नहीं समझ रहे और इस पक्ष से कई प्रकार की हानि भी उठा रहे हैं। यदि गुरमत व सिख प्रभावी नवीन कालोनियां, नगर तथा गांव इस ढंग से बसाने की योजना बनायें कि उनमें गुरमत धारणी बहुत संख्या में भारी होकर विचरण कर सकें तो निश्चित तौर पर इस से सिख मर्यादा तथा सिख संस्कृति के फैलने तथा विकसित होने में बहुत मदद मिल सकती है। बहुत दूर-दूर मिश्रित ढंग से बसे होने के कारण हमारी अगली पीढ़ी के मनों पर स्वत: ही पराधर्मियों की सभ्यता भारी होने लग गयी है। मिश्रित आबादी की जगह पर खालसा आबादी सिखी के प्रचार प्रसार में अधिक लाभकारी हो सकती है। गोइंदवाल आदि नगरों के निर्माण के पीछे यह विचार भी किसी हद तक ज़रूर काम करता रहा है कि नवीन बस रहे नगरों को इस ढंग से विकसित किया जाये कि वहां पर सिखी मर्यादा तथा सभ्यता भारी हो कर बढ़ फूल सके। नया नगर बसाने तथा विकसित करने में इमारती लकड़ी की कमी बहुत कठिनाई पैदा कर रही थी । (गुरू) अमरदास जी ने अपने भतीजे सावण मल को, जो कांगड़ा हरीपुर आदि पड़ी इलाकों में सिखी का प्रचार करते थे, पहाड़ी इलाकों से इमारती लकड़ी का प्रबंध करने को कहा। पहाड़ी इलाके के लोग पहले वैरागी साधुओं को मानते थे, पर सावण मल जी ने सिखी के असूलों का प्रचार अपने व्यावहारिक जीवन द्वारा किया । परिणाम यह हुआ कि वहां के अनेकों निवासियों ने सिखी धारण कर ली। हरीपुर का राजा भी अपने अमीरों-वज़ीरों सहित सिख बन गया । गोइंदवाल के निर्माण के लिए जितनी भी इमारती लकड़ी की आवश्यकता थी, वह खुले दिल से हरीपुर के राजा ने (गुरू) अमरदास जी को भेज दी। आप ने यह लकड़ी सभी नगर वासियों तथा बसने वाले नये लोगों को बांट दी। कुदरती बात थी कि इससे निर्माण कार्य बहुत तेज़ी पकड़ गया और गोइंदवाल एक सिख नगर की शक्ल अख्तियार कर गया।
गोइंदवाल के विकास के द्वारा सिखी की चढ़दी कला ने भट्ट विद्वानों के मनों पर इतना प्रभाव डाला कि उन्होंने गोइंदवाल को “गोबिंदपुरी” भाव ईश्वर की नगरी” कह कर सम्मानित किया। इस प्रकार गुरू अंगद देव जी ने अपने धर्म सेवक (गुरू) गुरू अमरदास जी से दीर्घ दृष्टि द्वारा एक ऐसे सिख नगर की स्थापना करवाई, जो सिख मत तथा सभ्यता के प्रचार-प्रसार हेतु बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ।