परिश्रम करने के सिद्धांत पर पहरा देना - Guard on the Principle of Diligence

परिश्रम करने के सिद्धांत पर पहरा देना

वास्तविकता यह है कि हम अभी तक अपने सतगुरू साहिबान का जीवन इतिहास में (द्वारा) ठीक ढंग से लोगों के सामने प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। सतगुर साहिबान के मह्मन् व्यक्तित्वों को हम इस ढंग से पेश करते रहे हैं जैसे कि वे हिंदू मत के संत-साधु प्रकट हो।

यह तो सर्वविदित है कि परिश्रम करना, बांट कर खाना तथा नाम का जाप करना” सिखी जीवन युक्ति क मुख्य आधार है। करतारपुर साहिब में लगभग 18 वर्ष के समय तक गुर नानक देव जी ने अपने जीवन के पिछले दिनों में इस सिद्धांत को व्यावहारिक दृशंत देकर समझाया। आप ने खेती-बाड़ी करने के पवित्र पेशे को अपनाया और बांट कर खाने तथा नाम सिमरन के सिद्धांत को व्यावहारिक तौर पर प्रचारित किया।

सब को पता है है कि गुरू अंगद देव जी के लंगर में बहुत अच्छी, बढ़िया तथा साफ खुराक हर किसी ने उपलब्ध की जाती थी। सत्ते तथा बलवंड की वार में तो लंगर में नित्य प्रति बांटी जाने वाली घी वाली मीठी खीर का स्पष्ट वर्णन आता है। लंगर के बढ़े हुए व्यय, सिखी के अनेकों केन्द्रों से एकत्र हुए दसवंध (दशांश) द्वारा आसानी से पूरे हो जाते थे।

लंगर का एक प्रयोजन, जलं मानव समाज में से ऊंच-नीच या जाति-पाति को जड़ से दूर कर के लोगों में परस्पर प्यार पैदा करना था, वहीं इस के द्वारा परिश्रमी सिखों में दसवंध निकालने तथा बांट कर खाने का सिद्धांत भी दृढ़ होता था। लंगर मुख्य तौर पर जरूरतमंदों, निराश्रितों, अंगहीनों या अन्य कारणों से असमर्थ लोगों को आदर सहित खुराक उपलब्ध करता था। इस के अतिरिक्त बाहरी क्षेत्रों तथा दुर-दराज की जगहों से गुरू साहिब से आत्मिक तथा धार्मिक रहनुमाई लेने के लिए आये श्रद्धालु गुरसिखों के लिए भी यह बहुत लाभदायक था । बाहर से आई संगत को आत्मिक उपदेश के साथ-साथ साफ-सुथरी तथा अच्छी खुराक मिल जाना, सब सिखों के लिए उत्साहवर्धक बात थी।

तवारीख खालसा क कर्ता गुरू साहिब की जूट की रस्सियां बनाने की क्रिया के अलावा बड़े साफ शब्दों में गुरू जी की निजी आमदनी के एक और स्त्रोत का भी वर्णन करता है। यथाः

सात ते दातु मे दी हट्टी में जो कुछ पैदा होवे, उसे विच गुजारा करना”। पूजा के धान का प्रयोग संबंधी उन्होंने अपने साहिबजादों को बड़ी सख्त हिदायतें दे रखी थीं जो तवारीख खालसा के अनुसार इस प्रकार है:”बेबे (गुरु साहिब के ताहिक) “कुछ चाहुण, तां गुरु जी आखण,” इह पूजा दा धान गृती गं का पारा। जो मुखाता विहंगम तापू तिव, लंगड़ा, लूला, रोगी, इ इनों पास आवे, उस दी विकराऊन।”

“सवानि-उमरी गुरू अंगद देव जी” का कर्ता भी गुरू साहिब की इस मामले में अपने साहिबज़ादों को की गयी सख्त हिदायत को इस प्रकार दर्शाता है, उन्होंने अपने बेटों को कम दे रखा था कि तुम आपण मुआशा दुकानदारी या काकारी से हासल करो। यह पूजा का माल तुम्हारे लिए ज़हरे कतल है। ना वोह उनके इशद के गुआक अमल करते थे।”

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