खडूर साहिब में गुरू दरबार की संगत में रहने वाले, बीबी विराई के प्रति चौधरी महिमे ने गुर उपदेश के द्वारा अपना जीवन ऊंचा व निर्मल बना लिया। अच्छी संगत में रहने के कारण खडूर साहिब के चौधरी तख्त मल खहरे ने अति पवित्र सिखी जीवन व्यतीत करना आरंभ कर दिया और अपने मन में सिख संगतों की सेवा के लिए चाव तथा उत्साह पैदा कर लिया | चौधरी तख्त मल गुरू के लंगर में नित्य प्रतिदिन दुध पहुंचाने की सेवा करने के साथ साथ आये गये परदेसी सिखों की सेवा संभाल करना अपने अहोभाग्य समझता था।
उपरोक्त चौधरियों की रिश्तेदारी में ही एक चौधरी मलूका भी था, जो खडूर साहिब के जोगी की संगत करता था। “तवारीख खालसा” ने इसका नाम मलूका दिया है जब कि “स्वानि उमरी गुरू अंगद देव जी” ने इसका नाम जवाहर मल लिखा है। जहां सिख मत नशों का सेवन वर्जित करता है, वहीं जोगी शराब आदि नशों को सुरति एकाग्र करने का साधन बताते थे और स्वयं गलत राह पर पड़ कर लोगों को भी उल्टी राह पर डालते थे। शराबी जोगी की कुसंगत ने मलूके को नशों का आदी बना दिया। मलूका शारीरिक तौर पर रोगी हो गया। कई रोग लग गये। मिरगी के दौरे पड़ने शुरू हो गये। कोई इलाज कारगर सिद्ध न हुआ । चौधरी मलूका वैसे गुरू घर का विरोधी था पर मिरगी से बहुत दुःखी होकर अपने संबंधियों द्वारा प्रेरित होकर गुरू अंगद देव जी के पास हाज़िर हुआ । गुरू जी ने पूर्ण तौर पर शराब छोड़ कर इलाज करवाने का उपदेश दिया । मिरगी के दौरे पड़ने हट गये। दिल मन में तो यह शराबी जोगी का श्रद्धालू था और गुरू घर का विरोधी भी था। कुछ दिन के पश्चात् फिर अपनी असल जगह पर पहुंच गया । जोगी की बुरी संगत ने फिर पुरानी आदत को जागृत कर दिया। मलूका शराब पीकर अपने मकान की छत पर चढ़ गया और गाली गलोच बकने लगा। मिरगी ने फिर आ घेरा और मकान की छत से गिर कर चौधरी मलूका मर गया। । बुरी संगत में बुरी आदतें पड़ जाती हैं और ये आदतें शनैः-शनैः पक कर स्वभाव का अंग बन् जाती हैं। इन बुरी आदतों को छोड़ना ही कठिन हो जाता है। छोड़ने का यल कई बार इसलिए बेकार हो जाता है कि बुरी संगत में पके हुए बुरे संस्कार फिर जागृत हो जाते हैं। शायद ऐसी घटनाओं को देख कर ही गुरु अमरदास जी ने गुरिआई की ज़िम्मेवारी संभालने के दौरान अपने सिखों के प्रति नीचे लिखे श्लोक उचार कर शराब आदि नशों से सख्ती से वर्जित किया था। यथा :
मापस भरिआ आणिआ, माणस भरिआ आई ॥ जित पीते मति दूरि होइ, बरलू पवै विचि आइ ॥
आपणा पराई न पाणई, वसमुह के खाइ ॥ जितु पीतै बस्नु विसरै, दरगह मिले सजाइ ।। झूठा मुटु मूलि न पीचई, जे का पारि बसाइ ॥ नानक नवरी सत्र मुटु पाईजे, सतिगुर मिले जिस आइ ॥
सदा साहिब के रंगि रहे महली पावै गाउं ॥”