जव जोगियों को इस बात का पता लगा कि वे गुरू नानक, जो जीवन अयंत झुके नहीं थे, ने अंत समय अपने ही परम सेवक गुरू अंगद देव जी के आगे शीश झुका कर उनको अपनी गुरू गद्दी दी है। तो ऐसे मह्मपुरुष के दर्शन करके वे अपने ढंग से जांचना चाहते थे। वे जितने दिन भी खडूर साहिब में रहे, गुरू मर्यादा के अनुसार भाई अजिते, रंधावे तथा भाई बुड्ढा जी ने उनकी पूरी सेवा की तथा गुरू अंगद देव जी के महान् व्यक्तित्व में उनको साक्षात गुरू नानक के ही दीदार हुए। वे आपस में गुरू अंगद देव जी की परीक्षा लेने आये थे, पर वह गुरू अंगद देव जी में नम्रता, मिठास, परमेश्वर भक्ति तथा उसको पा लेने संबंधी स्पष्टता तथा गुरू नानक जैसी निर्भय व्यक्तित्व को देख कर दंग रह गये।
समय-समय पर अनेकों जिज्ञासु गुरू अंगद देव जी के पास आ कर ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करते, सिखी धारण करते नशा जीवन की सही युक्ति संबंधी पड़े भ्रम दूर करवाते थे।
भाई किदाह को सतगुरू साहिब ने समझाया कि विषय-विकारों तथा माया के मोह की आग से बचने के लिए सतसंग रूपी शीतल समुद्र की शरण ही लाभदायक हो सकती है।
हरिनाथ नाम के एक साधू का सतगुरू साहिबान ने यह भ्रम दूर किया कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों आदि सब के धर्म अलग-अलग हैं। उसको सतगुरू साहिबान ने यह दृढ़ निश्चय करवा दिया कि दुनिया के हर मनुष्य के लिए आदर्शक धर्म केवल एक ही है, वह यह कि मनुष्य नेकी की राह पर चले और परमेश्वर के सिमरन में जीवन व्यतीत करे। अलग-अलग जातियों या लोगों के धर्म अलग-अलग होने की बात को सतगुरू साहिबान ने पूरी तरह रद्द कर दिया।
धरणी जाति के जग्गे को समझाया की जगत का संपूर्ण त्याग करके मनुष्य आत्मिक शांति नहीं हासिल कर सकता और न ही ईश्वर को मिलने की यह आदर्शक जीवन युक्ति हो सकती है। संसार में रहते हुए मेहनत-परिश्रम करते हुए धर्म की कमाई करना और मन सदा प्रभु में जोड़ कर रखना असल में जीवन युक्तिं है।
धिंग नाम के नाई को सिखी की निधि देते समय संगत की सेवा करने, गुरबाणी का कीर्तन सुनने तथा उषाकाल में परमेश्वर के नाम में ध्यान जोड़ने की जीवन युक्ति बताई। जीवन के खाली समय में भी गुरू उपदेश को मन में दृढ़ करने का उपदेश दिया।
पारो जुल्का जो बाद में गुरू अमरदास जी का भी बहुत निकटवर्ती सिख रहा, को आत्मिक उपदेश देते समय समझाया कि सच्चा भक्त माया में इस तरह निर्लिप्त रहता है जिस प्रकार पानी में कमल या मुरगावी निर्लिप्त रहती है।
इसी प्रकार बटाले के खानू, माहीआ तथा गोविंद को समझाया कि सच्चे भक्तों के लिए भक्ति का असली स्वरूप क्या है। सच्चा भक्त तो वही हो सकता है जो अपने इष्ट परमेश्वर के संग सदा एकमेव हो कर रहे।
दीपा, नारायण दास तथा बूलां नाम के सिख गुरू अंगद देव जी से माया की अग्नि के दु:खों से बचने का उपाय पूछने आये। सत्गुरू साहिबान ने इस संसार के सव पदार्थों को क्षण शृंगर समझने तथा एकमात्र सच्चे ईश्वरीय प्यार के साधन को ही सभी दुःखों का सही तथा अचूक दारू बताया।
आई माहणे को गुरू घर में सेवा करते हुए अहंकार हो गया था। उसको समदृष्टि अपनाने तथा नम्रता में रह कर सेवा करने का उपदेश दिया। गुरूद्वारों में सेवा कर रहे सेवादारों तथा प्रबंधकों को गुरू जी के इस उपदेश को विशेष कर हृदय में वसाने की आवश्यकता है। सेवा तव ही सेवा कही जा सकती है यदि निष्काम होकर, अहं को त्याग कर की जाये, सेवादार को कभी भी गुस्से में नहीं बोलना चाहिए बल्कि उसकी बोली मिठास तथा नम्रता वाली होनी चाहिए।