श्री गुरू अरजन देव जी के दरबार में एक दिन आगरा नगर से संगत काफले के रूप में एकत्र होकर पहुंची उन में से अधिकांश भाई गुरदास जी के प्रवचन सुना करते थे किन्तु अब लम्बे समय से भाई गुरदास जी आगरा त्याग कर गुरू चरणों में सेवा करते थे। संगत के मुखी ने गुरूदेव से अनुरोध किया। पहले भाई गुरदास जी हमारी आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान कर देते थे किन्तु अब लम्बी यात्रा करके आपके पास उपस्थित हुए है। कृप्या आप हमारी जिज्ञासाएं शांत करें। इस पर गुरूदेव जी ने उनको सांत्वना दी और कहा – यदि प्रभु ने चाह तो आप सन्तुष्ट होकर ही लोटेगे, आप निश्चंत रहे! तभी उन अभ्यागतों ने कहना प्रारम्भ किया हमारे समाज में अनेको धारणायें अथवा मान्यताएं प्रचलित है। कोई कहता है : ग्रंथ पढ़ों, कोई कहता है गृहस्थ त्याग कर वनों में तप करो। कोई कहता है तीर्थों का भ्रमण करो, कोई मूर्ति पूजा में विश्वास करता है तो कोइ कर्म-काण्डों में विश्वास रखता है तथा कोई निराकार प्रभु में विश्वास करता है। कृप्या आप ही बताए हमें कौन सा मार्ग अपनाना चाहिए जिससे हमें प्रभु की निकटता प्राप्त हो सके?
उत्तर में गुरूदेव ने कहा :- प्रभु का सम्बन्ध मन से है शरीर से नहीं, शरीर तो नाशवान है अतः आध्यात्मिक दुनिया में इसका महत्त्व गौण है। हम जो भी धार्मिक कार्य करें उसमें मन-चित का सम्मिलित होना अति आवश्यक है। अतः हमें उस निराकार प्रभू अर्थात रोम में बसे राम-रोम को सुरति सुमिरन से ही आराधना करनी चाहिए। इसके लिए किसी कर्मकाण्ड या आडम्बर रचने की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि प्रभु अन्त:करण की शुद्धता पर रीझता है, शरीर की वेष-भूषा पर नहीं। इस बात को दूसरे शब्दों में समझाने के लिए हम आपको इस प्रकार कह सकते है जैसे आपके शरीर की एक पत्नी है जो आप की अर्धागनी कहलाती है। ठीक इसी प्रकार आप अपनी आत्मा का विवाह शुभ गुणों से करें।
जो आपके साथ प्रलोक में भी सहायक बने, जैसे नम्रता, धैर्य, दया तथा अद्वैतवाद इत्यादि। यदि शुभ-गुण आप की आत्मा की अध रागिनी रूप में सहयोगी बन जायेगे तो सहज ही प्रभु की निकटता प्राप्त हो जायेगी।