भाई अजब जी तथा भाई अजायब जी

श्री गुरू अर्जुनदेव जी के दरबार में उनके मसंद (मिशनरी) अपने क्षेत्र से संगतों से ‘दसवंध’ की राशि एकत्रित करके लाये और उन्होंने वह समस्त धन राशि कोषाध्यक्ष को जमा करवा दी और नये भक्तजनों को गुरूदेव जी से मिलवाया। इस पर गुरूदेव जी ने उनसे पूछा कि भाई अजब व अजायब जी, आप जब दसवंध की राशि को एकत्रित कर लेते हैं तो उस का प्रयोग किस प्रकार करते हैं ? उत्तर में अजब व अजायब ने कहा – हे गुरूदेव ! आपने जैसा कि हमें बता रखा है, गरीब का मुँह, गुरू की गोलक (तिजोरी) समान है तो हम सबसे पहले जरूरतमंदों तथा मोताजों की सहायता करते हैं। तदपश्चात बाकी बचा हुआ धन आपके खजाने में जमा करवाते हैं। तब गुरूदेव जी ने पूछा – आप अपनी आवश्यकताएं किस प्रकार पूरी करते हैं तो उन्होंने उत्तर दिया कि हमारी अधिकांश आवश्यकताएं आपके सिक्ख ही पूरी करते हैं, परन्तु रास्ते के खर्च इत्यादि में कुछ अवश्य ही व्यय हो जाता है, किन्तु हम दसवंध का कभी भी दुरूयोग नहीं करते क्योंकि हम जानते हैं कि दसवंध की राशि अपने व्यक्तिगत अथवा स्वार्थसिद्धि के लिए खर्च करना विष के समान है। जिसने भी गुरू की अमानत में से खियानत की, उसकी मति मलीन हुई है और उसके परिवार का भ्रष्टाचार के कारण पतन ही हुआ है।

यह सुनकर गुरूदेव जी अति प्रसन्न हुए। इस पर उन सिक्खों ने विनती की कि हमें उपदेश दें जिससे हमारा उद्धार हो सके। गुरूदेव जी ने कहा – हमें अपने श्वासों की पूँजी को सफल करते रहना चहिए। वही श्वास हितकारी है। जो उस सच्चिदानंद (वाहेगुरू) की स्तुति गायन अथवा चिन्तन में व्यतीत होता है। बाकी श्वास तो ऐसे जानो जैसे लोहार या ठठिहार की धौंकनियाँ हैं धनार्जन हेतु परिश्रम करते हुए भी वाहेगुरू की याद को न भूलना, यह जप-तप है, इसी को सुरति सुमरिन कहा जाता है। सँसार समुद्र बहुत भयानक है और संशय रूपी जल से भरा हुआ है। इसमें कामादिक, मगरमच्छ, भ्रम के भंवर, कुसंगत इत्यादि की विपरीत दिशा की हवा चल रही है, इसमें केवल सत्संग जहाज है। गुरू उसका खेवट है। यदि प्राणी पर वाहिगुरू की कृपा हो तो सत्संग रूपी जहाज में जगह मिल जाती है। गृहस्थियों के लिए जप तप का उचित समय एकमात्र अमृतबेला है। गुरूवाणी का उच्चारण करना और उस पर आचरण करना ही सच्चा निर्मल मार्ग है। समाज के उत्थान के लिए निष्काम कार्य करना ही ईश्वर की सच्ची आराधना है।

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