भाई बहोडू जी घर लौट आये और प्रभु चिन्तन में समय व्यतीत करने लगे। अब वह हरि यश करने के लिए संगत को एकत्र करते और अभ्यागत की तन मन से सेवा करते। उनके हृदय परिवर्तन की पूरे क्षेत्रमें चर्चा होने लगी। आप जी संगत को प्रेरित करते कि वे भी गुरू दर्शनों को जायें। इस प्रकार आपने कई जत्थे बनाकर समय समय पर संगत को अमृतसर भेजा। एक दिन एक युवक आप के पास गुरू दर्शनों की अभिलाषा लेकर आया कि आप किसी जत्थे के संग उसे गुरूदेव के पास भेजें। आपने उस युवक को एक सिक्ख जानकर अभ्यागत के रूप में तन मन से सेवा की, उसे अपने घर ही ठहराया और कुछ दिन प्रतीक्षा करने को कहा – ताकि कुछ और लोग तैयार हो जायें। जिससे जत्था बन सके। भाई जी के परिवार के सदस्य उस युवक अभ्यागत की टहल-सेवा करने लगे। भाई जी की एक युवा पुत्री थी, जिसके विवाह के लिए वह विचार कर रहे थे, किन्तु अभी आप की दृष्टि में सुयोग्य वर नहीं था। अत: आप किसी गुरू-सिक्ख युवक की खोज में थे। इस अज्ञात अभ्यागत युवक को भोजन करते अथवा टहल-सेवा करते समय आपकी युवा पुत्री युवक के आकर्षण में आ गई। वे एक दूसरे को चाहने लगे। जल्दी ही चाहत प्रेम में बदल गई। यह बात आप की पत्नि को ज्ञात हो गई किन्तु वह शान्त रही क्योंकि वह जानती थी कि जल्दी ही युवक तीर्थ यात्रा पर अमृतसर जत्थे के साथ चला जायेगा और बात यहीं समाप्त हो जायेगी किन्तु इससे पहले कि जत्था तीर्थ यात्रा पर जाता, एक रात भाई जी ने युवा जोड़ी को प्रेम – क्रीड़ा में इक्ट्ठे सोते हुए पाया। उन्होंने उस समय विवेक बुद्धि से काम लिया और धैर्य रखते हुए अपनी चादर उन पर डाल दी। निन्द्रा टूटने पर युवती ने अपने पर पिता की चादर देखी तो वह भयभीत हो गई। उसने युवक को घटनाक्रम से अवगत करवाया। युवक को भूल का अहसास हुआ और वह भी भयभीत होकर धीरे से समय रहते घर से निकल गया। युवती ने अनैतिक अपराध के लिए पिता जी से क्षमा याचना की। इस पर भाई बहोडू जी ने पूछा कि वह अभ्यागत युवक अब है कहाँ? युवक की खोजबीन हुई। किन्तु वह कहीं नहीं मिला। युवती ने कहा – यदि मेरे प्रेम में शक्ति होगी तो वह अवश्य ही लौट आयेगा। वैसा ही हुआ अध रात्रि को दीवार फांद कर युवक चुपके से अन्दर घुसा और सीधा युवती के पास पहुँचा। उसने युवती से कहा – मैं अब तो तेरे बिना रह ही नहीं सकता। इसलिए तुम मेरा मार्गदर्शन करो। यदि कहो तो मैं तुम्हारे पिता जी के समक्ष आत्म समर्पण कर दूं अथवा हम दोनों भाग चलें। इस पर युवती ने कहा – अब भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि मेरे पिता का हृदय परिवर्तन हो गया है। वह पहले जैसे कठोर निर्दयी, खूखार नहीं रहे, क्योंकि वह अब गुरू वाले हैं और भजन-बंदगी ने उनका जीवन बदल दिया है। वह अब प्रत्येक कार्य में उस प्रभु की इच्छा का अनुभव करते हैं और उनके रोम रोम में मानवमात्र के लिए प्रेम ही प्रेम भरा पड़ा है। यह जानकारी प्राप्त होते ही अभ्यागत युवक ने भाई बहोडू जी को अपने लौट आने की सूचना दी। भाई बहोडू जी ने बड़े ही शान्त भाव से युवक को विश्राम करने का कहो। अगले दिन युवक ने बहोडू जी के चरण पकड़ लिये और कहा – आवेश में हम से भयंकर भूल हुई है, मुझे क्षमा दान दें। उदारवादी भाई बहोडू जी द्रवित हो गये। उन्होंने युवक को आलिंगन में लिया और कहा – मुझ में इतनी क्षमता नहीं है कि अपराध- निरपराध का निर्णय कर सकें। इस कार्य के लिए अब तुम दोनों को गुरूदेव के समक्ष उपस्थित होकर प्रायश्चित करना होगा।
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार भाई बहोडू जी श्रद्धालुओं का जत्था लेकर अमृतसर पहुँचे। इस बार इस जत्थे में उनकी अपनी पुत्री तथा वही अभ्यागत युवक भी था। गुरूदेव ने बच्चों की याचिका पर गम्भीरता से विचार किया और अपना निर्णय सुना दिया कि इन दोनों का आनन्द कारज सम्पन्न कर दिया जाये। जिससे ये दोनों दांपत्य जीवन सुखमय जी सकें।