बाला व किशना दो विद्वान गुरू अर्जुन देव जी के अनन्य सिक्ख थे। यह गुरमति का प्रचार करने भिन्न भिन्न स्थानों पर जाते रहते थे और वहाँ गुरू शब्द की व्याख्या बहुत प्रभावशाली ढंग से करते थे। संगत पर इन का गहरा प्रभाव पड़ता था। अधिकांश श्रोतागण इनकी कथा सुनकर मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। इस प्रकार वे गुरू नानक साहब के सिद्धान्तों को जनसाधारण में बहुत सफलतापूर्वक प्रचार कर रहे थे। एक बार वे दोनों गुरूदेव के दर्शनों के लिए अमृतसर आये और उन्होंने गुरूदेव जी के समक्ष याचना की कि हे गुरूदेव जी! हम जब संगत में गुरू शब्द की व्याख्या करते हैं तो श्रोतागण झूमते हैं और प्रसन्न भी बहुत होते हैं परन्तु हमारे अपने मन में शान्ति नहीं है, हमारे को तृष्णा तथा अन्य विकार समय-समय विचलित करते रहते हैं। मन सदैव स्थिर नहीं रहता, अक्सर डगमगाने लगता है। हम अपने जीवन में परिपक्वता किस प्रकार लायें, कोई उपाय बतायें? इस पर गुरूदेव जी ने प्रवचन किया कि केवल उज्ज्वल बुद्धि से शान्ति प्राप्त नहीं होती क्योंकि मन चंचल है। जब तक मन पर नियन्त्रण नहीं होता, सफलता नहीं मिल सकती। ध्यान योग्य बात यह है कि मन पर विजय पाना कठिन ही नहीं, असम्भव है किन्तु मन को नियन्त्रण में लाया जा सकता है, उसको धीरे धीरे गुरू उपदेश द्वारा एक विशेष दिशा में ढालो और उसकी चॅचल प्रवृतियों पर अंकुश लगा कर सङ्कर्मों में व्यस्त रखो, जिससे उसके सँस्कार इतने परिपक्व हो जाएं कि उसको भटकने का अवसर ही न मिले।
जब कभी आप संगत में गुरू शब्द की व्याख्या करें तो जो वृतान्त आये, उसको अपने लिए ही समझो और जैसे दूसरों को दृष्टान्त समझाने की बुद्धिमता रखते हो, ठीक वैसे ही अपने मन को भी समझाओ।