भाई भिखारी जी - Bhai Bhikhari Ji

भाई भिखारी जी (Bhai Bhikhari Ji)

श्री गुरू अरजन देव जी के दरबार में एक दिन एक गुरमुख सिंघ नाम का श्रद्धालु उपस्थित हुआ और वह विनती करने लगा। हे गुरूदेव! मैं आप जी द्वारा रचित रचना सुखमनी साहब नित्यप्रति पढ़ता हूं मुझे इस रचना के पढ़ने पर बहुत आनंद प्राप्त होता है परन्तु मेरे हृदय में एक अभिलाषा ने जन्म लिया है कि मैं उस विशेष व्यक्ति के दर्शन करू जिस की महिमा आपने ब्रह्मज्ञानी के रूप में की है। गुरूदेव इस सिख पर प्रसन्न हुए और कहने लगे आप की अभिलाषा अवश्य ही पूर्ण की जायेगी। उन्होंने एक पता बताया और कहा – आप जिला जेहलम (पच्छिमी पंजाब) के भाई भिखारी नामक सिख के गृह चले जाये। वहां आप के मन की मंशा पूर्ण होगी।

गुरमुख सिंघ जी खोज करते-करते भाई भिखारी जी के गृह पहुंचे। उस समय उनके यहां उनके लड़के के शुभ विवाह की बड़ी धूम धाम से तैयारियां हो रही थी। आप जी भाई भिखारी जी के कक्ष में उनको मिलने पहुंचे। किन्तु भाई जी एक विशेष कपड़े की सिलाई में व्यस्त थे। भाई भिखारी जी ने आगन्तुक का हार्दिक स्वागत किया और अपने पास बड़े प्रेम से बैठा लिया। सिघं जी को आश्चर्य हुआ और वह पूछ बैठे आप यह क्या सिल रहे है? जो इस शुभ समय में अति अवश्यक है? उत्तर मे भिखारी जी ने कहा – आप सब जान जायेगे, जल्दी की इस कपड़े की भी आवश्यकता पड़ने वाली है। इस वार्तालाप के पश्चात भाई भिखारी जी के सुपुत्र की बारात समधि के यहां गई और बहुत धूमधाम से विवाह सम्पन कर, बहू को लेकर लोट आई। जैसे ही लोग बधाईयां देने के लिए इकट्ठे हुए तो उसी समय गांव पर डाकूओं ने आक्रमण कर दिया। गांव के लोग इक्कठे होकर डाकूओं से लोहा लेने लगे, इन योद्धाओं में दूल्हा भी डाकूओं का सामना करने पहुंच गया। अकस्मात मुकाबला करते समय डाकुओं की गोली दूल्हे को लगी, वह वहीं वीरगति पा गया। इस दुखत: घटना से सारे घर पर शोक छा गया, किन्तु भाई भिखारी जी के चेहरे पर कोई निराशा का चिन्ह तक न था। उन्होंने बड़े सहज भाव से वही अपने हाथों से सिला हुआ कपड़ा निकाला और उसको बेटे के कफन रूप में प्रयोग किया और बहुत धैर्य से अपने हाथों बेटे का अंतिम संस्कार कर दिया। तब इस आगन्तुक श्रद्धालु सिख से न रहा गया। इसने अपनी शंका व्यक्त की कि जब आप जानते थे कि मेरे बेटे ने मर ही जाना है तो आपने उसका विवाह ही क्यों रचा? इसके उत्तर में भाई भिखारी जी ने कहा :- कि यह विवाह मेरे इस बेटे के संयोग में था। इसलिए इस कन्या के वरण हेतु ही उसने मेरे गृह जन्म लिया था क्योंकि इस के भूतपूर्व जन्म में इसकी अभिलाषा इस कन्या को प्राप्त करने की थी परन्तु उस समय यह संन्यासी, “योग आश्रम में था, इसलिए ऐसा सम्भव न था। तो भी इसकी भक्ति सम्पुर्ण हो गई परन्तु इसे मोक्ष प्राप्ति नहीं हुई। क्योंकि इस के मन में एक तृष्णा रह गई थी कि मैं इस लड़की को प्राप्त करू। इस संक्षिप्त उत्तर से आगन्तुक श्रद्धालु का संशय निवृत नहीं हुआ। उसने पुन: भाई जी से विनती कि कृप्या मुझे यह वृत्तांत विस्तार पूर्वक सुनाये।

इस पर भाई भिखारी जी ने यह वृतांत इस प्रकार सुनाया – मेरे इस बेटे ने अपने भूतपूर्व जन्म में भी एक कुलीन परिवार में जन्म लिया था। इसे किसी कारण युवावस्था में ही संसार से विराग हो गया। अत: इस ने संन्यास ले लिया और यह एक कुटिया बनाकर वनों में अपनी अराधना करने लगा परन्तु जीवन जीने के लिए यह कभी-कभी गाँव-देहातों में आता और भिक्षा मांग कर पेट की आग बुझा लेता। कुछ दिन ऐसे ही व्यतीत हो गये परन्तु एक दिन इस युवक को कहीं से भी भिक्षा नहीं मिली क्योंकि एक स्वस्थ युवक को कोई सहज में भिक्षा न देता। अन्त में एक घर पर यह पहुंचा, वहां एक नवयुवती ने बड़े सत्कार से इसे भोजन कराया। वास्तव में यह युवती इस युवक के तेजस्वी मुख मण्डल से बहुत प्रभावित हुई थी, क्योंकि इस छोटी सी आयु में इस युवक ने बहुत अधिक प्राप्ति कर ली थी। अत: इस का चेहरा किसी अज्ञात तेज से धहकने लगा था। इसी प्रकार दिन व्यतीत होने लगे। जब कभी इस युवक को कहीं से भी भिक्षा प्राप्त न होती तो इसी नवयुवती के यहां चला आता और यह युवती बड़े स्नेह पूर्वक इस संन्यासी युवक को भोजन कराती तथा टहल-सेवा करती। भोजन उपरान्त यह तपस्वी वापस अपनी कुटिया में लोट जाता। यह क्रम बहुत दिन चलता रहा। इसी बीच इन दोनों को परस्पर कुछ लगाव हो गया। यह तपस्वी चाहने पर भी अपने को इस बन्धन से मुक्त नहीं कर पाया। बस इसी लगाव ने एक अभिलाषा को जन्म दिया कि “काश हम गुहस्थी होते ” तभी इस युवक तपस्वी की भक्ति सम्पूर्ण हो गई तथा इस ने अपना शरीर त्याग दिया परन्तु मन में बसी अभिलाषा ने इसको पुनर जन्म लेने पर विवश किया और अब इसने मेरे बेटे के रूप में उस संन्यासी ने उसी युवती का वरण किया है जो इसको भोजन कराती थी। वास्तव में तो इसी की भक्ति सम्पुर्ण थी केवल पुनः जन्म एक छोटी सी तृष्णा के कारण हुआ था, जो वह आज पूरी हुई थी। इस प्रकार वह तपस्वी युवक अब मेरे बेटे के रूप में बैकुण्ठ को जा रहा है। इसलिए मुझे किसी प्रकार का भी शोक हो ही नहीं सकता। अत: मैं हर प्रकार से सन्तुष्ट हूँ। यह वृतांत सुनकर उस श्रद्धालु गुरूमुख सिंघ की शंका निवृत हो गई और वह जान गया कि ब्रह्मज्ञानी हर समय प्रभु रंग में रंगे रहते है। उनको कोई सुख-दु:ख नहीं होता। उनके लिए माट्टी, सोना एक सामान हैं और इनका शत्रु अथवा मित्र कोई नहीं होता। अत: यह लोग गृहस्थ में रहते हुए भी मन के पक्के वैरागी होते है और प्रभु लीला में ही इनकी भी खुशी होती है। यह प्रभु के कार्यो में हस्तक्षेप नहीं करते।

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