चोर की हामा भरे न कोइ ॥ चोरु कीआ चंगा किउ होइ ॥
धनासरी, महला पहला, पृष्ठ 662
आपने अपने प्रवचनों में कहा – मनुष्यों को अपनी जीविका विवेक बुद्धि से अर्जित करनी चाहिए जो भी व्यक्ति अधर्म के कार्य करके अपना अथवा अपने परिवार का पोषण करता है वह समाज में आदर का स्थान नहीं प्राप्त कर सकता। आज नहीं तो कल कभी न कभी ऐसा समय आता है जब रहस्य खुल जाता है और उस व्यक्ति को अपमानित होना पड़ता हैं। यह तो हैं इस संसार की बातें किन्तु आध्यात्मिक दुनियां में ऐसे व्यक्ति अपराधी होने के कारण पश्चात्ताप में जलते है और उनका स्थान गौण हो जाता है।
जब चोर ने यह प्रवचन सुने तो उसको आपने किये पर बहुत प्रायश्चित हुआ। अब वह मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि हे गुरूदेव! यदि मुझे इस भयंकर भूल से मुक्ति दिलवा दे, तो मैं शपत लेता हूं कि फिर कभी चोरी नहीं करूगां। चोर अराधना में खो गया। उस का कठोर हृदय संगत के प्रभाव से क्षण भर में पिघल कर मोम हो गया और नेत्रों में आसू धारा प्रवाहित होने लगी। जब उसके अतं:करण की शुद्धि हुई तभी उस पर गुरू कृपा हुई और उसकी काया कल्प हो गयी। वह चोर से साधु बन गया। इतने में किसानों का वह समुह चोर के पद चिन्हों के सहारे गुरू दरबार में पहुंच गये। उन्होंने गुरूदेव को चोर के वहां पहुंचने की सूचना दी। इस पर गुरूदेव ने उनसे कहा – आप को अपना माल -डॅगर मिल गया है क्या? किसानों ने उत्तर दिया, हजूर! वह तो पास के तालाब में है। गुरूदेव ने उन्हें परामर्श दिया जाओ पहले अपने माल को जाँच परख लो। वह गुरूदेव का आदेश मानकर तलाब पर पहुँचे और बहुत चकित हुए वहां पर उनकी भैंसे नहीं थी बल्कि कोई अन्य भूरे रंग की भैंसे थी जब कि इनकी भैंसो का रंग काला था। वे सभी अपना सा मुंह लेकर लोट गये।
किसानों के लोट जाने पर गुरूदेव ने चोर को अपने पास बुलाया। यह चोर जिसका नाम बिधिचंद था संगत में दुबका हुआ आँखें मीचे बैठा था। गुरूदेव के सम्मुख होते ही बिधि चंद ने उनके चरणों पर शीश धर दिया और क्षमा याचना करने लगा। गुरूदेव ने उसे कहा – क्षमा तो तभी मिलेगी जब तुम इन भैसों को उसी प्रकार लोटा दोगे, जिस प्रकार लाये थे और आइंदा से इन कुकर्मो से तोबा करोगे। बिधिचंद ने अश्वासन दिया कि वह आप के सभी आदेशे का पूर्ण निष्ठा से पालन करेगा और कभी अपराधी जीवन नहीं व्यतीत करेंगा।
इस घटना के पश्चात भाई विधि चंद जी श्री गुरु अरजन देव जी की सेवा में उनके अनन्य सिख के रूप में रहने लगे।