भाई कटारू जी - Bhai Kataru Ji

भाई कटारू जी (Bhai Kataru Ji)

श्री गुरू अर्जुन देव जी के दरबार में अफगानिस्तान से सिक्खों का एक काफिला दर्शनों के लिए उपस्थित हुआ। इस काफिले के एक सिक्ख भाई कटारू जी ने गुरू चरणों में प्रार्थना की कि हे गुरूदेव! मुझे जीवनयुक्ति बतायें, जिससे पुर्नजन्म का चक्र समाप्त हो जाये। उत्तर में गुरूदेव ने कहा, शुभ कर्म ही आवागमन के चक्र से छुटकारा दिलवा सकते हैं। अत: धर्म की कीरत (छलकपट रहित परिश्रम) करनी चाहिए अर्थात जीविका अर्जित करते समय धोखा फरेब नहीं होना चाहिए।

भाई कटारू जी ने गुरू उपदेश को गाँठ में बांध लिया और इस पर दृढ़ निश्चय से जीवन यापन की शपथ ली। वह अपने देश लौट कर अपने कार्यक्षेत्र में बहुत ईमानदार हो गये। उनकी नियुक्ति सरकारी भण्डार में थी, जहाँ जनता को उचित मूल्य पर रसद वितरण की जाती थी। उनके सहकर्मी उनकी इस ईमानदारी पर असन्तुष्ट हो गये क्योंकि वह न तो बेइमानी करते और न ही किसी को करने देते। इसलिए वह सहकर्मियों की आँखों में रकड़ने लगे। एक दिन सहकर्मियों ने मिलकर भाई कटारू जी के विरूद्ध षड्यन्त्र रचा। उनके बाट इस अंदाज से बदल दिये गए कि उनको इस बात पर कोई अन्देशा नहीं हुआ। भाई जी के बाट पूरे वजन के थे किन्तु अब नया बाट पाँच पैसे के वजन के बराबर कम था अर्थात 25 ग्राम भार की कमी उस में थी। किन्तु भाई जी इस विषय में अनजान थे। षड्यन्त्रकारियों ने किसी ग्राहक से स्थानीय हाकिम (वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी) को शिकायत की कि आप का भण्डारी कटारू तोल में हेराफेरी करता है। उसने बाटों में कटौती की हुई है। बस फिर क्या था, अधिकारी ने भाई कटारू जी को उनके बाटो सहित अपने कार्यालय में बुला लिया और उनके बाट दूसरे बाटो की तुलना के लिए बराबर तराजू पर पलट पलट कर तोल कर देखे गये किन्तु वह पूरे निकले। षड्यन्त्रकारियों की चाल निष्फल हो गई और उन्हें झूठी शिकायत पर बहुत फटकार मिली। हुआ यूँ, जैसे ही भाई कटारू जी को अहसास हुआ कि मैं षड्यन्त्र का शिकार बनने जा रहा हूँ। उन्होंने गुरू चरणों में प्रार्थना प्रारम्भ कर दी कि वह सत्य पर आधारित जीवन व्याप्त कर रहे हैं। यदि मैं इस समय षड्यन्त्र का शिकार हो जाता हूँ तो सभी ने मुझे नहीं, आप को बुरा भला कहना है क्योंकि मैं आप का शिष्य हूँ और लोगों ने कहना है, बड़ा गुरू वाला बनता फिरता है, करतूत तो देखो, बेइमानी ही इसका लक्ष्य है। मुझ से आप की निन्दा सहन नहीं होगी। कृपया आप पूर्ण पुरूष साक्षात प्रभु में अभेद हैं, अत: आप अपने बिरद की लज्जा रखें। दूसरी तरफ उस समय गुरूदेव का दरबार सजा हुआ था, भक्तगण की सत्य हृदय की पुकार समर्थ गुरू तक पहुँची। गुरूदेव सुचेत हुए  और उन्होंने वह पाँच पैसे अपनी हथेली पर रखे जो कि कुछ क्षण पहले ही एक सिक्ख उनको अपनी धर्म की कीरत में से दर्शन भेंट रूप में दे गया था। कुछ क्षण पश्चात् वही पाँच मोटे ताँबे के सिक्के दूसरी हथेली पर रखे। इस प्रकार उन्होंने दो तीन बार उलट-पलट कर पैसे हथेलियों पर तोले जैसे किसी तराजू का पसकू देख रहे हो। साधारणतः गुरूदेव धन से उपराम ही रहते थे किन्तु आज संगत कुछ और ही देख रही थी।

उस समय साहस बटोर कर एक सिक्ख ने पूछ ही लिया कि आज आप एक विशेष शिष्य की भेंट से इतना लगाव क्यों कर रहे हैं जबकि आप माया को कभी स्पर्श भी नहीं करते। उत्तर में गुरूदेव जी ने कहा – समय आयेगा इस बात का रहस्य प्रकट करने वाला स्वयँ ही यहाँ आयेगा।

लगभग एक महीने के पश्चात् भाई कटारू जी छुट्टी लेकर काबुल से अमृतसर गुरूदेव के दर्शनों को आये और वह गुरू चरणों में नतमस्तक हो दण्ड्वत प्रणाम करने लगे। उन्होंने गुरूदेव का आभार व्यक्त करते हुए कहा – आपने मुझ तुच्छ प्राणी की लज्जा हाकिम के दरबार में समस्त विरोधियों के बीच में रख ली। मैं उसके लिए आप का सदैव ऋणी रहूँगा। उत्तर में गुरूदेव जी ने कहा – वास्तव में आपकी प्रार्थना और श्रद्धा सँग लाई थी, हमारा तो बिरद है – भक्तों की कठिन समय में सहायता करना।

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