भाई तीर्था ‘मंझ जी’ ने श्री दरबार साहब अमृतसर में अपने श्रद्धा सुमन भेंट करते हुए गुरूदेव के दर्शन किये और उनके समक्ष मंशा प्रकट करते हुए कहा कि मुझे यह जीवन सफल करना है, आप कृपया मेरा मार्गदर्शन करें। इस पर गुरूदेव ने प्रश्न किया, हे भक्तजन! आज तक आप आध्यात्मिक उन्नति के लिए क्या करते रहे हैं? उत्तर में भाई मंझ जी ने कहा – मैं सखी सरवर का शिष्य हूँ, वहीं की जयारत करके लौट रहा हूँ। गुरूदेव जी ने कहा – शायद आप को मालूम होगा हम केवल एकीश्वर की उपासना में विश्वास रखते हैं और सभी प्रकार की साकार, उपासनाओं को केवल कर्मकाण्ड मान कर अपने अनुयाईयों को इन क्रियाओं से दूर रहने के लिए कहते है। जिससे उनका अमूल्य समय नष्ट न हो क्योंकि ये समस्त क्रियाएँ निष्फल चली जाती हैं। अब विचार लो, हमारे – तुम्हारे सिद्धान्त परस्पर विपरीत हैं। अत: कहीं संयोग हो ही नहीं सकता। यदि तुम हमारे से आध्यात्मिक मार्गदर्शन चाहते हो तो उसका मूल्य बहुत अधिक है, जिस को चुकाना असम्भव तो नहीं, कठिन अवश्य है। उत्तर में मंझ जी कहने लगे कि मैं हर असम्भव कार्य करने को तैयार हूँ, कृपया आप बतायें, मुझे क्या करना होगा? इस पर गुरूदेव ने स्पष्ट किया। तुम्हें किसी एक का शिष्य बनना होगा क्योंकि एक समय में दो विपरीत सिद्धान्त अपनाये नहीं जा सकते तात्पर्य यह कि जैसे एक रंगीन कपड़े पर यदि दूसरा रँग चढ़ाना हो तो पहले वाले रँग को उतारना होता है तभी दूसरा रंग निखरता है। ठीक इसी प्रकार तुम्हें ‘सखी सरवर’ की सिखी सेवकी का बिल्कुल त्याग करना होगा। तब कहीं जाकर हम तुम्हें अपना सिख स्वीकार करेंगे। तात्पर्य यह है कि एक समय में आप दो गुरूजनों के शिष्य नहीं रह सकते। एक सिखी पर दूसरी सिरवी नहीं टिक सकती। अत: यदि हमारे लिए स्वयँ को समर्पित करते हो तो तुम्हें पहले अपने घर जाकर अपने घर से पीरवाना हटाना होगा और घोषणा करनी होगी कि मैं अब ‘सखी सरवर’ का सिख नहीं, मैंने गुरू नानक देव जी सिखी धारण कर ली है। इसके पश्चात् ही हम तुम्हें दीक्षा देंगे। भाई मंझ जी ने गुरूदेव को उत्तर में रहस्य बताया और कहा – हे गुरूदेव ! मेरा एक मित्र आप का सिख है। वह प्राय: आप जी की वाणी मुझे सुनाता रहता है और मैं उससे बहुत बार आध्यात्मिक उल्जनों का समाधान पा चुका हूँ। मैं जानता हूँ कि हम जो कव्वालियाँ बना बना कर पीर की स्तुति में गाते हैं, वह आध्यात्मिक दुनिया से गौण है। इसलिए मैंने आपके दर्शन करने से पहले आप के यहाँ कुछ दिन कीर्तन, कथा श्रवण करने में व्यतीत किये हैं। जिससे मेरे मन के सभी संशय निवृत्त हो गये हैं। इसलिए आप निश्चिंत रहे। मैं अपने निश्चय में अटल हूँ। आप की आज्ञा अनुसार ही आचरण करूंगा। इस प्रकार भाई तीर्था (मंझ जी) अपने गाँव लौट आये। उन्होंने आते ही अपने परिवार को विश्वास में लिया और सब से पहले अपने घर से पीरखाना सदा के लिए हटा दिया। जब पड़ोसी सखी सरवरियों को पीर की कब्र सुबह दिखाई नहीं दी तो गाँव में बहुत बवेला हुआ। जिस कारण लोगों ने उन्हें पंचायत के चौधरी पद से हटा दिया। ऊपर से विडम्बना यह कि आपको प्रकृति प्रकोपों ने आ घेरा। देखते ही देखते कुछ ही दिनों में आपके मवेशी धीरे धीरे मर गये और आपकी फसल भी किसी भयकर बीमारी की चपेट में आकर नष्ट हो गई। गांव के लोग जो कभी मित्र हुआ करते थे, अब शत्रु बन कर व्यंग्य करने लगे। किन्तु भाई मंझ जी ने धैर्य नहीं छोड़ा। उनका मानना था कि शायद गुरूदेव उनकी परीक्षा ले रहे हैं कि मेरा शिष्य कितना दृढ़ निश्चयी है। उसकी श्रद्धा डगमगाती है कि नहीं। आर्थिक विपत्तियों ने आपको घेर लिया। इस कारण आप को अपनी भूमि गिरवी रखनी पड़ गई। किन्तु आप विचलित नहीं हुए, बल्कि गुरू की ओट लेकर, सब कुछ सहर्ष सहन करते गये। इस प्रकार एक वर्ष व्यतीत हो गया। गाँव के लोग फिर पीर की जयारत पर जाने को तैयार हुए। उनमें से कुछ एक ने भाई मंझ जी को प्रेरणा की कि हम आपके हितैषी हैं, इसलिए आप को निगाहे गाँव जाकर क्षमा याचना करने का सुझाव दे रहे हैं, जिससे आप की समृद्धि फिर से लौट आये। परन्तु भाई मंझ जी किसी विशेष मिट्टी के बने हुए थे। वह अपनी दृढ़ता में ही रहे। उनका मानना था कि गुरू नानक की सिक्खी प्राप्त करने के लिए कुछ मूल्य तो चुकाना ही पड़ेगा और उन्होंने गुरू अर्जुन देव जी के दर्शनों के लिए अमृतसर जाने का मन बना लिया।
एक वर्ष बाद भाई मंझ जी गुरू अर्जुन देव के सम्मुख अमृतसर में हाजिर हुए। उन्होंने गुरूदेव को बताया कि मैं आपकी आज्ञा अनुसार ही आचरण कर रहा हूँ। शायद इसलिए मेरे गाँव वालों ने मुझे बिरादरी से निष्कासित कर दिया है। उत्तर में गुरूदेव जी ने हां – अंधविश्वासी लोग ज्ञानवान का क्या बहिष्कार करेंगे। वास्तव में एक समय आयेगा जब वे स्वयँ ही प्रायश्चित करेंगे। आप बस समय की प्रतीक्षा करें और पक्की धुन से संगत की सेवा में जुट जायें।
भाई मंझ जी गुरू उपदेश लेकर वहीं लंगर सेवा करने में जुट गये। आप जी ने गुरू चरणों में रहकर गुरूवाणी कंठस्थ कर ली और नाम सिमरण करने लगे। आप प्रात:काल बिस्तर त्याग देते और लंगर के लिए ईधन लेने जंगल में चले जाते, ईधन की लकड़ियों का एक बोझा वह प्रतिदिन लंगर में डालते और बाकी के समस्त दिन में संगत की टहल सेवा में व्यतीत करते। इस प्रकार लगभग एक वर्ष व्यतीत हो गया। एक दिन गुरूदेव लंगर में पधारे, अकस्मात् उनकी दृष्टि भाई मंझ जी पर पड़ी तो उन्होंने भाई मंझ से पूछा – हे भक्तजन ! भोजन कहाँ से करते हो ? भाई मँझ ने उत्तर दिया लंगर से। तब गुरूदेव ने उन्हें समझाते हुए कहा – आपने सेवा के बदले भोजन कर लिया, बताओ सेवा का फल कहाँ से प्राप्त होगा ? भाई जी ने गुरूदेव के संकेत को समझा और निष्काम सेवा के लिए कमर कस ली। अब आप ईंधन के दो बोझे हँगल से लाने लगे। एक गुरू के लंगर में डाल देते और दूसरा नगर में बेच देते। उससे प्राप्त धन से अपने भोजन की व्यवस्था करते। इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो गया। एक दिन भाई मंझ जी प्रात:काल जंगल से ईधन का बोझा लेकर लौट रहे थे तो अकस्मात् भयंकर आँधी तूफान चलने लगा जिस कारण वह मार्ग चूक गये और एक सिंचाई वाले कुंए में गिर गये जो कि खेतों के समतल ही था। कुआं अधि क गहरा नहीं था। इसलिए भाई जी गर्दन तक ही डूबे और वह वहीं बोझा उठाए गुरूवाणी का उच्चारण करने में व्यस्त हो गये। सूर्य उदय होने पर जब किसान अपने खेतों में आया तो उसने कुएं में से आवाज आती सुनी। उसने पाया कि यह तो गुरूदेव का सिक्ख भाई मंझ है जो सदैव सेवा में लीन रहता है। उसने तुरन्त गुरूदेव को सूचना भेजी कि आपका सेवक कुएं में गिर गया है और भाई जी को कुएं से बाहर निकालने का प्रयास करने लगा। गुरूदेव सूचना पाते ही उसी क्षण दुर्घटना स्थल के लिए चल पड़े। कुएं पर गुरूदेव ने भाई जी को आवाज लगाई कि मंझ जी लकड़ियां फैंक दो और रस्सी थाम कर बाहर आ जाओ किन्तु भाई जी ने उत्तर दिया कि पहले लकड़ियाँ बाहर निकालो क्योंकि इनकी लंगर में आवश्यकता है, इन्हें भीगने नहीं देना, यदि ये भीग गई तो लंगर में विघ्न उत्पन्न होगा। गुरूदेव ने उनकी इच्छा अनुसार ही किया। जब भाई मंझ जी को बाहर निकाला गया तो गुरूदेव ने उन्हें आलिंगन में ले लिया और आशीष दी –
मझ प्यारा गुरू को गुरू मझ प्यारा।
मझ गुरू का बोहिथा जग लघन हारा।
और कहा – भाई मंझ जी, हम चाहते हैं कि आप कुछ मांगे, गुरू नानक के दर पर आपने बहुत सेवा की है। इस पर भाई जी कहने लगे कि कृपा सिंधू यदि आप कृपालु हुए हैं तो मेरी एक विनती स्वीकार करें कि आइंदा किसी भी सेवक की इतनी कड़ी परीक्षा न लिया करें। गुरूदेव ने उन्हें आश्वासन दिया कि ऐसा ही होगा किन्तु आप अपने लिए कुछ माँगो। यह तो आपने परहित के लिए माँगा है। किन्तु भाई जी का मानना था कि मुझे केवल गुरू कृपा ही चाहिए। यही मेरे लिए पर्याप्त है।
गुरूदेव ने भाई तीर्था (मंझ) जी को उनके पैतृक गाँव में सिक्खी प्रचार के लिए नियुक्त किया। भाई जी ने अपने विनम्र स्वभाव से समस्त क्षेत्र को गुरू नानक का शिष्य बनाया और सखी सरवर के कर्मकाण्डों से मुक्ति दिलवाई।