भाई त्रिलोका जी - Bhai Triloka Ji

भाई त्रिलोका जी (Bhai Triloka Ji)

गुरू श्री अर्जुन देव जी के दरबार में अफगानिस्तान के गजनी क्षेत्र से संगत गुरू दर्शनों को आई। अमृतसर पहुँचने पर गुरूदेव की ओर से उनका भव्य स्वागत किया गया। संगत में से एक त्रिलोका नामक व्यक्ति ने गरूदेव के समक्ष निवेदन किया कि हे गुरूदेव! मुझे प्रभु दर्शनों की तीव्र अभिलाषा है। कृपया मुझे युक्ति प्रदान करें, जिससे मैं उस स्वामी के दर्शन कर सकें। गुरूदेव त्रिलोका जी की अभिलाषा पर रीझ उठे। प्रसन्न हो कर उपदेश दिया कि समस्त प्राणीमात्र उस प्रभु की रचना है। वह स्वयँ अपनी रचना में विराजमान हैं अर्थात समस्त जीव उसी के अंश हैं, वही सभी का पिता है, इसलिए सभी पर दया करनी चाहिए। इस प्रकार हम उस प्रभु को रिझाने में सफल हो सकते हैं और वह हमें अपनी रचना में दिखाई देने लग जायेगें।

भाई त्रिलोका जी ने गुरूदेव के प्रवचनों को समझा और उन पर आचरण करने का मन बनाकर वापिस गजनी आ गया। उनकी नियुक्ति सेना में थी। उनका अधिकारी सैनिकों को प्रशिक्षण देने के लिए समय समय पर कवायत करवाता रहता था, जिसके अनुसार कुछ दिनों के पश्चात् जंगल में शिकार खेलने जाना होता था। अधिकारियों का मानना था कि शिकार करना एक अच्छा सैनिक प्रशिक्षण है। एक दिन सैनिक अधि कारियों के साथ भाई त्रिलोका जी को शिकार पर जाना पड़ा, अकस्मात् एक हिरनी त्रिलोका जी के सामने पड़ गई। उन्होंने हिरनी के पीछे घोड़ा भगाया और इस हिरन को तलवार से दो भागों में काट दिया। हिरनी गर्भवती थी। अतः उसके बच्चे भी भाई त्रिलोका जी के समक्ष मर गये। इस दुर्घटना का भाई जी के कोमल हृदय पर गहरा आघात हुआ। वह प्रायश्चित करने लगे किन्तु अब क्या हो सकता था ? उन्होंने स्वचिंतन प्रारम्भ किया और पाया कि यदि मेरे पास घातक शस्त्र न होतो तो यह हत्या सम्भव ही नहीं थी। अतः उन्होंने इस्पात (फौलाद) की तलवार के स्थान पर लकड़ी की तलवार बनाकर धारण कर ली।

समय व्यतीत होने लगा। एक दिन सैनिक अधिकारी ने अकस्मात् सभी जवानों के शस्त्र निरीक्षण किया! उसने आदेश दिया कि सभी जवान एक कतार में खड़े हो जाये और अपने अपने शस्त्रों का मुआयना करवायें। भाई त्रिलोक जी यह हुक्म सुनते ही सकते में आ गये। उनको अहसास हुआ कि उनसे भूल हुई है, यदि काठ की तलवार उसके अधिकारी ने देख ली तो नौकरी तो गई, इसके साथ दण्ड रूप में गद्दारी का आरोप भी लगाया जा सकता है। ऐसे में उनका ध्यान गुरू चरणों में गया। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगे – हे गुरूदेव! मैं विपत्तिकाल में हूँ। मुझे आपके अतिरिक्त कहीं और से सहायता सम्भव ही नहीं है। अत: मेरी लज्जा रखें और मुझे इस संकटकाल से उभार लें। दूसरी ओर अमृतसर में श्री गुरू अर्जुनदेव जी दरबार में विराजमान थे कि अकस्मात् उन्होंने एक सेवक को आदेश दिया कि तोशे खाने से वह एक तलवार लेकर आये। सेवक तुरन्त तलवार लेकर हाजिर हुआ। गुरूदेव ने वह म्यान में से बाहर निकाली और उसे घुमा फिरा कर संगत को दिखाने लगे जैसे कि शस्त्रों की तेजधार का निरीक्षण किया जा रहा हो। कुछ क्षणों बाद उसे फिर से म्यान में रखकर तोशेरवाने में वापिस भजे दिया। संगत को इस प्रकार गुरूदेव द्वारा तलवार को हिलाकर दिखाना बहुत अद्भुत लगा। एक सेवक ने जिज्ञासा व्यक्त की और गुरूदेव से प्रश्न पूछ ही लिया। आज आप तलवार से क्यों खेल रहे हैं। उत्तर में गुरूदेव ने कहा – समय आयेगा तो आप स्वयँ ही इस भेद को भी जान जायेंगे।

भाई त्रिलोका जी प्रार्थना में खो गये। सभी जवान बारी बारी अपनी तलवारों का मुआयना करवा रहे थे आखिर त्रिलोका जी की बारी भी आ गई। उन्होंने गुरूदेव को हृदय में नाम लिया और उन्हें समर्थ जानकर म्यान से तलवार निकाल कर अधिकारी को दिखाई। तलवार की चमक अधिकारी की आँखों में पड़ी और वह चौंध्य गया। इसलिए उसने तलवार को अन्य सिपाहियों की अपेक्षा दो तीन बार पलट पलट कर देखा और आश्चर्य में पड़ गया और उसके मुख से निकला ईल्लाही – शमशीर अर्थात (अद्भुत तलवार) तभी उसने भाई त्रिलोका जी को पुरस्कृत करने की घोषणा कर दी। भाई जी इस चमत्कार के लिए गुरूदेव के लिए कृतज्ञता में अवाक् खड़े रहे और उनके नेत्रों से प्रेम की आँसू बह निकले। कुछ दिनों पश्चात् वह छुट्टी लेकर गुरूदेव के दरबार में अमृतसर हाजिर हुए और उन्होंने बताया कि मैं संकटकाल में प्रार्थना कर रहा था कि हे गुरूदेव जी ! जैसे दुर्योधन के दरबार में द्रोपदी की, चीरहरण के समय, लज्जा रखी गई थी, ठीक इसी प्रकार आप मेरी सहायता में पहुँचे।

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