एक बार श्री गुरू अर्जुन देव जी के दरबार में भाई झंडू, भाई मुकंदा व भाई केदारा जी हाजिर हुए। उन्होंने गुरूदेव जी से पूछा कि हम किस प्रकार का जीवन जियें ताकि हमारा इस जन्म में उद्धार हो सके। पुनर्जन्म की सम्भावना न रहे। इस पर गुरूदेव जी ने कहा – आप सभी राग विद्या के ज्ञाता हैं, इसलिए कीर्तन द्वारा नित्य प्रति प्रभु स्तुति करो। आप ज्यों ज्यों रागों में वाणी गाओगे, प्रेम बढ़ेगा, क्योंकि कीर्तन सुरति एकाग्र करने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। जैसे ही सुरति प्रभु चरणों में लीन होती है, सभी प्रकार के विकार मनुष्य को छोड़कर भाग जाते हैं, इसलिए कीर्तन तुल्य कोई तप नहीं, जहाँ कीर्तन करने वालों का कल्याण होता है, वहीं कीर्तन श्रवण करने वालों का भी उद्धार होता है। तात्पर्य यह है कि इस विधि द्वारा दोहरी प्राप्ति होती है, जिसे हम ‘आप जपो अवरा नाम जपवाओं’ कहते हैं।
इस विधि द्वारा साधना करने में केवल सर्तकता, निष्कामता की ही होनी चाहिए, नहीं तो धन की कामना फल से वंचित कर देती है।