दीवानचन्द लाल, बादशाह अकबर के वित्त मंत्रालय में एक अधिकारी था। अत: लोग उस को दीवान जी कह कर सम्बोधन करते थे। चन्दूलाल ने दिल्ली तथा लाहौर नगरों में अपने पक्के निवास के लिए हवोलियाँ बनवाई हुई थी। प्राचीन परम्परा के अनुसार चन्दूलाल ने अपनी लड़की का रिश्ता करने के लिए पुरोहितों को एक सुयोग्य वर ढूंढने की आज्ञा दे रखी थी। इतिफाक से पुरोहितों ने गुरू घर की महिमा सुन रखी थी तो वह अमृतसर आये। जब उन्होंने गुरूदेव के दर्शन किये तो वह गद्गद हो गये। उन्होंने श्री अर्जुन देव जी के सुपुत्र हरिगोबिन्द जी को देखा, जो कि उस समय किशोर अवस्था में केवल ग्यारह वर्ष के लगभग थे तो वह उनको निहारते ही रह गये। उनकी सुन्दर छवि पुरोहितों के हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ गई। वह हरिगोबिन्द जी के व्यक्तित्त्व से बहुत प्रभावित हुए। समय मिलते ही पुरोहित ने गुरूदेव के समक्ष अपने हृदय की बात रखी और कहा – मैं आपके सुपुत्र हरिगोबिन्द जी के लिए चन्दू लाल की लड़की का रिश्ता लाया हूँ, वह बेटी भी अति सुन्दर और सुशील है। कृपया यह रिश्ता स्वीकार करें। उत्तर में गुरूदेव ने कहा – ठीक है। स्वीकृति प्राप्त होते ही यह शुभ समाचार लेकर पुरोहित दिल्ली पहुँचा। उसने चन्दूलाल को गुरू घर के वैभव से अवगत करवाया। चन्दूलाल प्रसन्न हुआ किन्तु मीन-मेख निकालने के लिए उस से अपने अभिमानी स्वभाव का परिचय दिया। उसने कहा – हमारा राजसी परिवार है, वह फकीरों का दर है, परन्तु कोई बात नहीं। तुम्हारे कार्य पर हम सन्तुष्ट हैं और उसने यह शुभ समाचार देने के लिए स्थानीय बिरादरी को एक प्रीति भोज पर निमन्त्रण दिया। जिस में नगर के गणमान्य लोग उपस्थित हुए। इनमें से अधिकांश गुरू घर पर अपार श्रद्धा रखते थे। प्रीतिभोज के मध्य में चन्दू शाह ने पुरानी पंजाबी प्रथाओं अनुसार हँसी-मजाक (ठ्ठा) करते हुए कहा – यह पुरोहित भी कैसे हैं? चुबारे की ईट मोरी को लगा दी है। यह वाक्य सुनते ही वहाँ का वातावरण गम्भीर हो गया। गुरू घर के श्रद्धालु सिक्खों ने बहुत आपत्ति की और प्रीति भोज का बहिष्कार कर दिया और वापिस चले आये। उन्होंने तुरन्त आपस में विचार विमर्श कर के गुरूदेव जी को एक पत्र द्वारा सारे वृतान्त की सूचना भेजी और गुरूदेव से अनुरोध किया कि वह इस अभिमानी चन्दूलाल की बेटी का नाता स्वीकार न करें।
जैसे ही गुरूदेव ने दिल्ली की गुरू संगत द्वारा लिखी पत्रिका प्राप्त हुई। उन्होंने तुरन्त उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। जब पुरोहित शगुन लेकर अमृतसर पहुँचे तो गुरूदेव ने उन्हें बताया कि उन को दिल्ली की संगत का आदेश है कि चन्दू ने श्री गुरू नानक देव जी के गृह को तुच्छ बताया है और स्वयँ महान बनता है। अतः इस अभिमानी व्यक्ति का नाता स्वीकार न करें। अत: हम विवश हैं और यह रिश्ता नहीं हो सकता। इस पर पुरोहित ने गुरूदेव को बहुत मनाने की कोशिश की, परन्तु गुरूदेव ने एक ही उत्तर दिया कि हमारे लिए सद्-संगत का आदेश सर्वप्रथम है। जब रिश्ते के अस्वीकार होने की सूचना चन्दू लाल को मिली तो उसे बहुत पश्चाताप हुआ, क्योंकि वह वास्तव में इस रिश्ते से सन्तुष्ट था। किन्तु अब कुछ किया नहीं जा सकता था।
जैसे ही गुरूदेव को पुरोहितों से इन्कार किया। उसी समय सजे हुए दरबार में एक व्यक्ति उठा, जिसका नाम नारायणदास था, विनती करने लगा – हे गुरूदेव ! कृपया आप मेरी पुत्री कुमारी दामोदरी का रिश्ता अपने सुपुत्र श्री हरिगोबिन्द जी के लिए स्वीकार करें। गुरूदेव जी ने उसे अपना परम भक्त जानकर तुरन्त स्वीकृति प्रदान कर दी। भाई नारायणदास जी प्रसिद्ध डल्ला निवासी भाई पारो जी के पुत्र थे।