शीतला (चेचक) रोग

श्री गुरू अर्जुन देव जी प्रचार अभियान के अन्तर्गत लोक कल्याण के लिए कुछ विशेष कार्यक्रम चला रहे थे, जिसमें अकालग्रस्त क्षेत्रों में कुएं खुदवाना तथा पीड़ितों के लिए लंगर, दवाएं इत्यादि का प्रबन्ध उल्लेखनीय था। सन् 1599 ईस्वी की बात है कि आपको सूचना मिली कि लाहौर नगर में अकाल पड़ गया है और वहाँ लोग भूख-प्यास के कारण मर रहे हैं तो आप से न रहा गया। आपने कमजोर वर्ग के लिए सहायता शिविर लगाने के विचार से अपने समस्त अनुयायियों को प्रेरित किया और स्वयँ परिवार सहित लाहौर नगर पहुँच गये। परिवार को साथ रखना अति आवश्यक था क्योंकि आपके भाई पृथ्वीचन्द ने ईर्ष्या के कारण आप के सुपुत्र बालक हरिगोबिन्द जी पर कई घातक आक्रमण अपने षड्यन्त्रों द्वारा किये थे, अतः बालक की सुरक्षा अति आवश्यक थी।

जब आप लाहौर नगर में जनसाधारण के लिए सहायता शिविर चला रहे थे तो उन्हीं दिनों वहाँ पर मलेरिया व शीतला (चेचक) जैसे रोग विकराल रूप धारण कर घर घर फैले हुए थे। असंख्य मनुष्य इन रोगों का सामना न कर मृत्यु की गोद में समा रहे थे। लाहौर नगर की गलियाँ शवों से भरी हुई थी। प्रशासन की ओर से कोई व्यवस्था ही नहीं थी। ऐसे में आप द्वारा चलाये जा रहे सहायता शिविरों के स्वयँ सेवकों ने नगरवासियों के सभी प्रकार के दुखों को दूर करने का बीड़ा उठा लिया। आप स्वयँ रोगग्रस्त क्षेत्रों में लोक सेवा के लिए भ्रमण कर के लोगों को राहत पहुँचा रहे थे। इसी बीच आपके बालक हरि गोबिन्द जी को छूत का रोग शीतला (चेचक) ने आ घेरा। किन्तु आप विचलित नहीं हुए। आपने तुरन्त परिवार को उपचार के लिए वापिस अमृतसर भेज दिया। किन्तु आप जानते थे कि जनसाधारण में दकियानूसी विचार प्रबल हैं, अशिक्षा के कारण लोग शीतला (चेचक) रोग को माता कहते हैं और इस रोग का उपचार न कर अंधविश्वासों के अन्तर्गत काल्पनिक देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, जिनका अस्तित्त्व भी नहीं है। अतः आप स्वयँ भी अमृतसर वापिस पधारे और अपने बालक का उपचार करने लगे। प्राय: इस रोग के लक्ष्ण इस प्रकार होते हैं – पहले तेज बुखार होता है, दूसरे – तीसरे दिन रोगी बेहोश होना शुरू हो जाता है। शरीर से अग्नि निकलती प्रतीत होती है, उसके पश्चात् सारा शरीर फफोलों से भर जाता है। ज्यों ज्यों फफोले निकलते हैं, मूर्छा कम होती जाती है। यह रोग इतना भयानक होता है कि कई रोगियों की आँखे खराब हो जाती हैं, वे अन्धे हो जाते हैं तथा व्यक्ति सदा के लिए कुरूप हो जाता है।

उन दिनों शिक्षा के अभाव के कारण अथवा अज्ञानता के कारण अंधविश्वास का बोलबाला था। दकियानूसी लोग वहमों, भ्रमों को बढ़ावा देते रहते थे। ये लोग शीतला रोग को माता कह कर पुकारते थे और उसके लिए जलाशयों के किनारे विशेष मन्दिर निर्माण कर के शीतला की माता कहकर पूजा इत्यादि किया करते थे। उनका विश्वास था कि यह रोग माता जी के कोपी होने के कारण होता है। इसलिए रोगी व्यक्ति को दवा इत्यादि नहीं देते थे।

जैसे ही अमृतसर के स्थानीय निवासियों को ज्ञात हुआ कि गुरूदेव जी के बालक हरिगोबिन्द जी शीतला रोग से पीड़ित हैं तो वे औपचारिकतावश बालक के स्वास्थ्य का पता लगाने आने लगे। उन्होंने पाया कि गुरूदेव जी अडोल प्रभु लीला में प्रसन्न हैं और बालक के उपचार के लिए वैद्य लोगों से विचारविमर्श में व्यस्त हैं। कुछ रूढ़िवादी लोगों ने आपको परामर्श दिया कि आप बालक को शीतला माता के मन्दिर में ले जाये और वहाँ माता की पूजा करे। गुरूदेव जी ने उन्हें समझाया कि सभी प्रकार की शक्तियों का स्वामी वह प्रभु निराकार, दिव्य ज्योति स्वयँ आप ही हैं। हम केवल और केवल उसी की उपासना अर्चना करते हैं और आप भी केवल उसी सच्चिदानंद की आराधना करें।

गुरूदेव जी की करनी -कथनी में समानता थी। वह जो जनसाधारण को उपदेश देते थे, पहले अपने जीवन में दृढ़ता से अपनाते थे। वह कभी भी कठिन परिस्थितियों में भी विचलित नहीं हुए। वह जनसाधारण के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे थे कि प्रभु अपनी लीला द्वारा भक्तजनों की बार बार परीक्षा लेता है परन्तु हमें दृढ़ निश्चय में अडोल रहना चाहिए और विचलित नहीं होना चाहिए। आपने प्रभु आराध ना करते हुए निम्नलिखित पद्य कहे।

नेत्र परगासु कीआ गुरदेव॥ भरम गए पूरन भई सेव ॥१॥रहाअु ॥
सीतला ते रखिआ बिहारी ॥ पारब्रहम प्रभ किरपा धारी ॥१॥
नानक नामु जपै सो जीवै॥ साध संगि हरि अंम्रितु पीवै ॥

(राग गउड़ी महला 5 वां पृष्ठ 200)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *