यह प्रश्न सुनकर गुरूदेव गम्भीर हो गये और कुछ समय मौन रहने के पश्चात् उत्तर दिया। तीसरे गुरू अमरदास जी इस बात का निर्णय समय से पहले ही कर गये हैं। उनका कथन है कि जो मनुष्य अपने अस्तित्व को मिटा दे और उस प्रभु में अभेद हो जाए अर्थात सत्य में समा जाये, तद्पश्चात वह अपने अनुभव अथवा ज्ञान जिज्ञासुओं को दे, भले ही वह ज्ञान पद्य अथवा गद्य में हो। यह अनुभव ज्ञान उस असीम प्रभु मिलन से उत्पन्न होता है, इसलिए यह जन-साधारण का कल्याणकारी बन जाता है। इसके विपरीत जो मनुष्य केवल स्वांग रचकर गुरू डेम का
आडम्बर करते हैं अथवा तृष्णाओं से ग्रस्त रहते हैं अर्थात मन पर विजय प्राप्त नहीं करते, उनके द्वारा रचित काव्य अथवा उपदेश श्रद्धालुओं पर कोई सार्थक प्रभाव नहीं डालते क्योंकि उनकी कविता केवल अनुमान पर आधारित होती है, अनुभव ज्ञान पर नहीं। अतः गुरूदेव ने उनकी रचनाओं को कच्ची वाणी बताया है और कहा है कि वह स्वयँ कच्चे लोग हैं, इसलिए परिपूर्ण परब्रह्म परमेश्वर की क्या स्तुति करेंगे?
सति गुरू बिना होर कची है वाणी। वाणी त कची सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी।
कहदे कचे सुणदे कचे कची आखि वरवाणी।
यह उत्तर सुनकर श्रद्धालु सिक्ख सन्तुष्ट हो गये, परन्तु उन में से एक ने कहा – गुरूदेव ! हम जन-साधारण लोग, कच्ची और पक्की वाणी में कैसे भेद करेंगे? उस समय पास में भाई गुरूदास जी बैठे थे। उन्होंने गुरूदेव जी से आज्ञा प्राप्त कर इस प्रश्न का उत्तर दिया – वह कहने लगे – जैसे कि बहुत से पुरूष किसी कमरे में बैठे वार्तालाप कर रहे हों, दूसरे कमरे में बैठी स्त्रियाँ अपने अपने पतियों की आवाज पहचानती हैं, ठीक इसी प्रकार गुरू सिक्ख अपने गुरू की वाणी को पहचान जाते हैं। इस पर जिज्ञासु सिक्खों ने संशय व्यक्त किया और कहा – आप ठीक कहते हैं। परन्तु भविष्य में साधारण जिज्ञासु भ्रमित किये जा सकते हैं, क्योंकि आपका भतीजा मिहरबान कुछ कवियों की सहायता प्राप्त कर वाणी रचने का प्रयास कर रहा है। वास्तव में वह आप की छत्र- छाया में रहने से गुरमति सिद्धान्तों को भी जानता है। अत: उसका किया गया छल किसी समय बहुत बड़ा धोखा कर सकता है क्योंकि वह अपनी कच्ची वाणी में ‘नानक’ शब्द का प्रयोग कर रहा है।
गुरूदेव जी इस विषय पर बहुत गम्भीर हो गये और कहने लगे कि बहुत समय पहले जब मैं लाहौर अपने ताऊ श्री सिहारीमल जी के आग्रह पर उनके बेटे के शुभ विवाह पर गया हुआ था। तब मुझे वहाँ के स्थानीय पीरों फकीरों से मिलने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ था और उनकी निकटता प्राप्त करने के पश्चात् हमारे हृदय में यह इच्छा उत्पन्न हुई थी कि एक ऐसा आध्यात्मिक ग्रन्थ दुनिया में रचा जाना चाहिए जो बिना भेदभाव के समस्त मानव समाज के लिए कल्याणकारी हो। अब वह समय आ गया है। अतः हमें तन, मन और धन से इस ओर जुट जाना चाहिए।
गुरूदेव जी ने अपने हृदय की बात प्रमुख शिष्य- भाई गुरदास जी, बाबा बुड्ढा जी तथा भाई बन्नों जी इत्यादि को बताते हुए कहा – अब हरिमन्दिर साहब तैयार हो चुका है, जैसे कि आप सभी जानते ही हैं। हमारा इष्ट निराकार पारब्रह्म परमेश्वर है अर्थात हम केवल ब्रह्मज्ञान के उपासक हैं और उसी की पूजा करते हैं। अत: हम चाहते हैं कि हरि मन्दिर के केन्द्र में केवल और केवल उस सच्चिदानंद परमपिता परमेश्वर की ही स्तुति हो। इसलिए उन महापुरूषों तथा पूर्व गुरूजनों की वाणियों का संग्रह करके एक विशेष ग्रन्थ की सम्पादना करनी चाहिए, जो प्रभु में एकमय हो चुके हैं अथवा उस से साक्षात्कार कर चुके हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि ऐसे निरपेक्ष ग्रन्थ के अस्तित्व से समस्त भक्तजनों को जहाँ सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा मिलेगी, वहीं इन वाणियों के पठन-पाठन एवँ श्रवण से समस्त मानव समाज के जिज्ञासुओं का उद्धार होगा।
यह सुझाव भाई गुरदास जी, बन्नों जी, बाबा बुड्ढा जी इत्यादि समस्त सिक्खों को बहुत पसन्द आया। सचमुच यह विचार ही अलौकिक और अभूतपूर्व था। उन्होंने तत्काल गुरूदेव जी के सुझाव अनुसार एक विशेष स्थान का निर्माण प्रारम्भ कर दिया, जहाँ एकान्त में बैठ कर नये ग्रन्थ की सम्पादना की जा सके। इस कार्य के लिए भाई बन्नों जी ने अपनी सेवाएं गुरूदेव जी को समर्पित की। पहले उन्होंने पेयजल अथवा स्नान इत्यादि के लिए जल की व्यवस्था करने के लिए एक ताल बनवाया, जिसका नाम रामसर रखा। इस सरोवर के किनारे तम्बू लगाये गये। इस बीच गुरूदेव स्वयँ सामग्री जुटाने में व्यस्त हो गये। कागज, स्याही इत्यादि प्रबन्ध के पश्चात् उन्होंने अपने पूर्व गुरूजनों की वाणी जो कि उन्हें धरोहर के रूप में पिता गुरूदेव श्री गुरू राम दास जी से प्राप्त हुई थी, अमृतसर से रामसर के एकान्तवास में ले आये। जब सब तैयारी सम्पूर्ण हो गई तो आपने ग्रन्थ को प्रारम्भ करने के लिए संगत जुटाकर प्रभु चरणों में कार्य सिद्धि के लिए प्रार्थना की और प्रसाद बाँटा, तभी सँगत में से एक सिक्ख ने सुझाव दिया कि ग्रन्थ का मंगला चरण किसी महान विभूति से लिखवाया जाना चाहिए। गुरूदेव जी ने यह सुझाव तुरन्त स्वीकार कर लिया। अब समस्या यह उत्पन्न हुई कि वह महान विभूति कौन है, जिस से यह कार्य प्रारम्भ करवाया जाये। बहुत सोच विचार के पश्चात् संगत में से प्रस्ताव आया कि आप अपने मामा मोहन जी से ग्रन्थ में मंगला – चरण लिखवाये क्योंकि वह आप के नाना, पूर्व गुरूजन के सुपुत्र हैं तथा वह एक महान तपस्वी भी हैं। गुरूदेव जी ने सहमति प्रकट की और उनको रामसर आने का न्यौता बाबा बुड्ढा जी तथा भाई गुरूदास जी के हाथ भेजा।
जब गुरूदेव जी का यह प्रतिनिधि मण्डल गोईदवाल बाबा मोहन जी के गृह पहुँचा तो वह उस समय पदम् आसन में प्राणायाम के माध्यम से तपस्या में लीन थे। उनकी समाधि किसी ने भी भंग करनी उचित नहीं समझी। अतः सभी लौट आये। इस पर गुरूदेव जी स्वयँ उनको आमन्त्रित करने के लिए गोईदवाल पहुँचे। जब उन्होंने भी पाया कि बाबा मोहन जी की सुरति प्रभु चरणों में जुड़ी हुई है तो उन्होंने युक्ति से काम लिया। वह जानते थे कि श्री मोहन जी कीर्तन के रसिया हैं। वह प्रभु स्तुति सुनकर अवश्य ही चेतन अवस्था में लौट आयेंगे। अत: उन्होंने प्रभु स्तुति में अपने प्रतिनिधि मण्डल सहित कीर्तन करना प्रारम्भ कर दिया। कीर्तन की मधुर धुनों से बाबा मोहन जी की समाधि उत्थान अवस्था में आ गई। वह संगीतमय वातावरण देखकर अति प्रसन्न हुए और प्रभु स्तुति सुनकर मंत्रमुग्ध हो गये। उन्होंने अपने भांजे श्री गुरू अर्जुन देव को आशीष दी और कहा – बताओ, क्या चाहते हो? गुरूदेव जी ने अपने आने का प्रयोजन बताते हुए कहा – हमने निर्णय लिया है कि एक ऐसे ग्रन्थ की सम्पादना की जाए, जिसमें पूर्व गुरूजनों के अतिरिक्त उन महापुरूषों अथवा भक्तजनों की बाणी भी संग्रह की जाए जो केवल एकेश्वर को भजते थे और जिन्हें उस परम ज्योति का साक्षात्कार हुआ है। जिससे समस्त मानव समाज का कल्याण हो सके। अत: हम चाहते हैं कि इस ग्रन्थ का मंगला चरण आप लिखें। उत्तर में बाबा मोहन जी ने कहा – आप का आशय तो बहुत ही उत्तम है किन्तु जब हम से भी बुजुर्ग यहाँ मौजूद हों तो यह कार्य मुझे शोभा नहीं देता। अत: आप श्री गुरु नानक देव जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री चन्द जी के पास जाओ। बात में तथ्य था। इसलिए गुरूदेव जी ने तुरन्त सुझाव स्वीकार कर लिया परन्तु विनती की कि आप भी अपनी वाणी इस ग्रन्थ के लिए हमें दें। इस पर बाबा मोहन जी ने उत्तर दिया – जैसा कि आप जानते ही हैं कि आपके नाना गुरू अमर दास जी की रचनाओं को हमारे भतीजे संतराम जी लिपिबद्ध किया करते थे। उन्होंने अपने भाई श्री सुन्दर जी की बाणी संग्रह की हुई है, जो उन्होंने अपने दादा श्री गुरू अमर दास जी के देहावसान पर उच्चारण की थी। यदि आप चाहते हैं तो उन से मिले और वह बाणी एकत्र कर लें। गुरूदेव सत्य वचन कह कर श्री सुन्दर जी से मिले और उनसे उनकी रचनाएं प्राप्त कर ली।
गुरूदेव जी बाबा मोहन जी के सुझाव को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गोईदवाल से बाबा श्री चन्द जी के निवास स्थान गांव बारठ के लिए प्रस्थान कर गये। वहाँ उन्होंने बाबा श्रीचन्द जी को अपने आने का प्रयोजन बताया। श्रीचन्द जी प्रयोजन सुनकर अति प्रसन्न हुए और उन्होंने श्री अर्जुन देव जी से आग्रह किया कि आप कृपया अपनी रचनाएं सुनाएं। इस पर गुरूदेव जी ने ‘सुखमनी साहब’ शीर्षक वाली रचना सुनानी प्रारम्भ की। श्री चन्द जी ‘सुखमनी साहब’ के पठन के मध्य में ही आत्म-विमुग्ध हो गये और उन्होंने कहा – आप की बाणी विश्वभर में आध्यात्मिक जगत में प्रथम स्थान पर मानी जायेगी। भक्तजनों में अति लोकप्रिय होगी और समस्त मानव समाज के लिए हितकारी होगी। इस आशीष के मिलने पर गुरूदेव जी ने उनसे आग्रह किया कि कृपया आप भी अपनी बाणी हमें दें, जो हम उसे इस नये ग्रन्थ में संकलित कर लें। इस पर श्रीचन्द जी ने उत्तर दिया कि आप श्री गुरु नानक देव जी की गद्दी पर विराजमान हैं। यह बाणी रचने का अधि कार केवल आप को ही है क्योंकि आप नम्रता के पुंज हैं। अतः हम आपसे इस कार्य के लिए क्षमा चाहते हैं। इस पर गुरूदेव जी ने श्री चन्द जी से फिर विनम्र आग्रह किया कि आप केवल ग्रन्थ का मंगला चरण अथवा आमुख लिखे। तब श्री चन्द जी ने कलम उठाई और गुरूदेव द्वारा प्रस्तुत कागजों पर मूलमंत्र लिख दिया जो कि श्री गुरू नानकदेव जी की बाणी जपुजी साहब के प्रारम्भ में उस सच्चिदानंद अथवा दिव्य ज्योति की परिभाषा है।
१ ओंकार ( ) सति नाम करता पुररवु निरभउ निरवैर अकाल मूरति अजूनी सैनं गुर प्रसादि।
गुरूदेव मंगला चरण लिखवा कर अमृतसर लौट आये और उस स्थान पर पहुँचे जहाँ भाई बन्नों जी एकान्तवास में एक सरोवर निर्माण कर उसके किनारे शमियाने लगाकर उस शिविर में प्रतीक्षा कर रहे थे। अब गुरूदेव के समक्ष दो लक्ष्य थे – एक दूर प्रदेशों से आई संगत को निवाजणा (सन्तुष्ट अथवा कृर्ताथ करना) तथा दूसरा था – एकान्तवास में आध्यात्मिक दुनिया को एक नया सरल भाषा में ग्रन्थ उपलब्ध करवाना जो निरपेक्ष, सर्वभौतिक, सर्वकालीन और सर्व मानव समाज के लिए संयुक्त रूप में हितकारी और कल्याणकारी हो।
गुरूदेव जी ने बाबा बुड्ढा जी को आदेश दिया कि आप अमृतसर में ही रहें। वहाँ दूर – प्रदेशों से आई संगतों को निवाजे और हमारी कमी उन्हें महसूस न होने दें। ध्यान रहे कि हमारे एकान्तवास में कोई विघ्न उत्पन्न नहीं होना चाहिए, ताकि हम ग्रन्थ के सम्पादन में एकाग्र हो सके।
गुरूदेव जी ने मुख्य लक्ष्य को ध्यान में रखकर नये ग्रन्थ की सम्पादना के लिए, भाई गुरुदास जी को इस का उत्तरदायित्व सौंपा। भाई गुरुदास जी ने तत्कालीन उत्तरप्रदेश के कई क्षेत्रों में गुरमति प्रचार की सेवा की थी। आप उच्च कोटि के विख्यात विद्वान थे। आप हिन्दी, ब्रज, पंजाबी, फारसी भाषाओं का गहन अध्ययन प्राप्त व्यक्तित्व के स्वामी थे। आपने स्वयँ भी बहुत से काव्य रचे थे जो कि आज भी सिक्ख जगत में अति लोकप्रिय हैं। उन दिनों आप जी को गुरूबाणी का श्रेष्ठ व्याख्याकार माना जाता था। कुल मिलाकर यदि यह कहा जाये कि आप काव्य कला, व्याकरण, भाषा, राग विद्या इत्यादि के महान पंडित थे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
श्री गुरू अर्जुन देव जी ने वह समस्त महापुरूषों की बाणी पहले से ही अपने पास संग्रह कर रखी थी, जिनका आशय अथवा सिद्धान्त पूर्व गुरूजनों से मेल खाता था अथवा उनके विचारों में गुरमति सिद्धान्त से कोई प्रतिरोध न था। वैसे श्री गुरू नानक देव जी ने अपने प्रचार दौरों के समय जहाँ अपनी बाणी एक विशेष पोथी में लिखकर सुरक्षित कर ली थी, वहीं वह उन महापुरूषों की बाणी, जिनका आशय गुरूदेव की अपनी बाणी से मिलता था अथवा सैद्धान्तिक समानता थी, अपने पास एक अलग से पोथी में संकलित कर ली थी, जो कि उन्हें समय-समय पर विभिन्न प्रदेश में विचरण करते समय उनके अनुयायियों द्वारा सुनाई गई थी। आप जी ने जब अपना स्थाई निवास करतारपुर बसाया तो वहाँ आप इन पोथियों में संकलित बाणियों का प्रचार किया करते थे। जब आप जी ने अपना उत्तराधिकारी भाई लहणा जी को नियुक्त कर उनको श्री गुरू अंगद देव जी बनाया अर्थात गुरू पदवी देकर दूसरा गुरू नानक घोषित किया तो उन्हें वह समस्त बाणी जो उन्होंने स्वयँ उच्चारण की थी, अथवा अन्य महापुरूषों की रचनाएं एकत्रित की थीं, एक धरोहर के रूप में उनको समर्पित कर दी थी। यह परम्परा इसी प्रकार आगे बढ़ती ही चली गई और अन्त में चारों गुरूजनों की रचनाएं तथा अन्य भक्त, महापुरूषों की बाणी श्री गुरू राम दास जी द्वारा, श्री गुरू अर्जुन देव जी को धरोहर सौंप दी गई थी। जिनको कि इस समय कुछ नियमों के अनुसार क्रमबद्ध करने के लिए भाई गुरदास जी और स्वयँ गुरूदेव एक मन एकचित्त (हो, तैयार बैठे थे।
गुरूदेव जी के समक्ष अब समस्त रचनाओं को नये सिरे से रागों के अनुसार क्रम देने तथा गुरूबाणी के शब्द जोड़ कर एक समान करने का विशाल कार्य था। इसके अतिरिक्त काव्य-छंदो की दृष्टि से समस्त वाणी व वर्गीकरण करना अति आवश्यक लक्ष्य था। यह कार्य जहाँ अति परिश्रम का था, वहीं इसके लिए समय भी बहुत अधिक चाहिए था। अतः आप रात-दिन एक करके इस महान कार्य को सम्पूर्ण करने में समस्त हो गये। आपने उन्हीं रागों का चयन किया जो मन को स्थिर करके शान्ति प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं। उन रागों को अपने ग्रन्थ में सम्मिलित नहीं किया, जिनके उच्चारण अथवा गायन से मन चॅचल अथवा उत्तेजित होता है। आप जी ने सारी बाणी को 30 रागों में लिखवाया। तीस रागों के क्रमवार नाम इस प्रकार हैं –
श्रीराग, माझ, गउड़ी, आसा, गुजरी, देवगंधारी, बिहागड़ा, बडहंस, सोरठि, धनासरी, जैतसरी, टोडी, बैराड़ी, तिलंग, सूही, बिलावलु, गोंड, रामकली, नट नरायण, माली गउड़ा, मारू, तुखारी, केदारा, भरैउ, बसंत, सारंग, मलार, कानड़ा, कल्याण और प्रभाती।
इस ग्रन्थ में जिन महापुरूषों के पदों का संकलन किया गया, वे इस प्रकार है : –
सर्वप्रथम पूर्वज गुरूजनों की बाणी तपश्चात उन की अपनी बाणी, फिर पन्द्रह भक्तजनों की बाणी, उसके बाद ग्यारह भट्ट कवियों की बाणी और अन्त में चार गुरू सिक्खों की बाणी। इस प्रकार 2 कुल जोड़ 34 है कि 35 महान विभूतियों की रचनाओं का यह विशाल ग्रन्थ अस्तित्व में आ गया। उन पैंतीस महान विभूतियों के नाम निम्नलिखित इस प्रकार हैं : –
1. श्री गुरू नानकदेव जी,
2. श्री गुरु अंगद देव जी,
3. श्री गुरू अमरदास जी,
4. श्री गुरू राम दास जी,
5. श्री गुरू अर्जुन देव जी।
भक्तजनों के नाम हैं –
6. कबीर जी,
7. नामदेव जी,
8. रविदास जी,
9. फरीद जी,
10. त्रिलोचन जी,
11. वेणी जी,
12. धन्ना जी,
13. जयदेव जी,
14. भीवन जी,
15. सेण जी,
16. सदना जी,
17. पीपा जी,
18. रामानन्द जी,
19. परमानन्द जी,
20. सुरदास जी।।
भट्ट कवियों के नाम इस प्रकार हैं –
21. श्री कल्ह सहार,
22. श्री जाल्य,
23. श्री कीरत,
24. श्री सल्ल,
25. श्री भल्ल,
26. श्री नल्ल,
27. श्री भीखां,
28. श्री गयंद,
29. श्री बल्ल और
30. श्री हरिबंस।
इसके अतिरिक्त चार सिक्खों के नाम इस प्रकार हैं –
31. श्री सुन्दर जी,
32. श्री मरदाना जी,
33. श्री सत्ता जी, 34.
श्री बलवण्ड जी।।
इस प्रकार यह ग्रन्थ 974X 2= 1948 पृष्ठों वाला, विशाल आकार में अस्तित्त्व में आ गया। जिस का नाम आदि ग्रन्थ रखा गया।
नोट : कालान्तर में श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी ने जब अपने सिक्खों को एक विशेष पद्धति द्वारा आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान कर, उनको सिक्ख धर्म का प्रचारक बनाना चाहते थे तो आपने बठिंडा जिले के साबो की तलवंडी नामक स्थल पर गुरूबाणी पठन-पाठन के लिए नये सिरे से आदि ग्रन्थ का भाई मनी सिंह से सम्पादन करवाया और उस में नौंवे गुरू श्री गुरू तेग बहादुर जी की बाणी राग जय जय वन्ती के अन्तर्गत सम्मिलित कर ली और नये ग्रन्थ का आकार घटा कर पृष्ठ संख्या 1430 कर दी। बाकी सामग्री ज्यों की त्यों उस प्रकार रहने दी और उस में कोई भी फेर-बदल नहीं किया। आप जी ने अपने सच खण्ड गमन के समय इसी ग्रन्थ को गुरू पद से अलंकृत किया और ग्रन्थ का नाम आदि ग्रन्थ’ से ‘गुरू ग्रन्थ साहब’ करने की घोषणा की।