जब भव्य भवन निर्माण का शुभारम्भ गुरूदेव जी ने सांई मियाँ मीर जी द्वारा करवा दिया तो संगत कार सेवा (श्रमदान) के लिए सक्रिय हुई। दूर-दराज से श्रद्धालु अपना अपना योगदान देने के लिए उमड़ पड़े। तभी गुरूदेव जी ने इस नव-निर्माण हेतु भवन का नाम हरि मन्दिर रखा और इसका कार्य संचालन बाबा बुड्ढा जी की देखरेख में होने लगा। गुरूदेव जी ने हरिमन्दिर साहब के लिए चार प्रवेश द्वारों का निर्देश दिया। जिसका सीधा संकेत यही था कि यह पवित्र स्थान चारों वर्गों के व्यक्ति के लिए सदैव खुला है और समस्त मानवमात्र प्रत्येक दिशा से बिना किसी भेदभाव से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रवेश कर सकता है। कुछ प्रमुख श्रद्धालु सिक्खों ने नक्शे और भवन की स्थिति पर संशय व्यक्त करते हुए आप जी से प्रश्न किया कि सभी प्रकार के विशेष भव्य भवन बहुत ऊँचे स्थान पर निर्मित किये जाते हैं और वह नगर के सब से ऊँचे भवनों में से होते हैं किन्तु आप ने हरि मन्दिर को बहुत नीचे स्थान पर बनाया है और भवन की ऊँचाई भी न के बराबर है। इसका क्या कारण है? उत्तर में गुरूदेव जी ने कारण स्पष्ट करते हुए कहा कि – मन्दिरों की संख्या अनन्त है किन्तु हरि मन्दिर कोई नहीं, हरि के दर्शन तो तभी मिलते हैं जब मन नम्रता से झुक जाए, निर्मल हो जाए। अत: भवन के निर्माण में विशेष ध्यान रखा गया है कि सभी जिज्ञासु श्रद्धा भावना में नम्र होकर झुक कर नीचे उतरे, जिससे अभिमान जाता रहे क्योंकि अभिमान प्रभु मिलन में बाधक है। अत: भवन की ऊँचाई भी कम रखी गई है ताकि नम्रता की प्रतीक बन सके। इसके अतिरिक्त भवन को सरोवर के जल की सतह पर रखा गया है, बिल्कुल वैसे ही जैसे कमल का फूल, जल के सदैव ऊपर रहता है, कभी डूबता नहीं। इसका सीधा सा अर्थ है कि श्रद्धालुओं को गृहस्थ में रहते हुए माया से निर्लेप रहना चाहिए – जैसे कमल पानी में रहते हुए उससे निर्लेप रहता है।
जब हरि मन्दिर की परिक्रमा से जोड़ने के लिए दर्शनी डियोडी तथा पुल का निर्माण किया गया तो गुरूदेव जी ने रहस्य को स्पष्ट किया कि यह पुल एकता का प्रतीक है। सभी सम्प्रदायों के लोग धर्म-निरपेक्षता के बल पर भव सागर को पार कर हरि में विलय हो जायेंगे।