हरिमन्दिर साहिब का निर्माण - Construction of Harimandir Sahib

हरिमन्दिर साहिब का निर्माण (Shri Guru Arjan Dev Ji)

श्री गुरू अर्जुन देव जी ने गुरू गद्दी प्राप्ति के पश्चात् उनके अपने भाई पृथ्वीचन्द द्वारा छल कपट के बल पर कृत्रिम आर्थिक नाकेबंध से उत्पन्न कठिनाइयों को झेलने पर भी विकास के कार्यो को ज्यों का त्यों जारी रखा। जैसे ही उनकी आर्थिक परिस्थिति सुधर गई तो उन्होंने नव निर्माण के कार्य पुनः प्रारम्भ करवा दिये। इस बीच नगर का विकास जो पिछड़ गया था, उसे तीव्र गति प्रदान की और पिता गुरूदेव जी द्वारा तैयार किये जो रहे ‘राम दास सरोवर’ को पक्का करना आरम्भ करवा दिया। जब सरोवर का काम चल रहा था तो कुछ मंदबुद्धि वाले मसंदो (मिशनरियों) न चिनाई में चूना इत्यादि के स्थान पर गारे आदि का प्रयोग करना शुरू कर दिया। इस बात की सूचना पाते ही गुरूदेव जी उन लोगों पर बहुत अप्रसन्न हुए और उन्होंने कहा – ये लोग गुरूघर की महिमा नहीं जानते। गुरू श्री नानक देव जी के गृह में किसी वस्तु की कमी नहीं आती, केवल मन में विश्वास और प्रभु पर दृढ श्रद्धा होनी चाहिए। सरोवर के काम को समाप्त करने के पश्चात् कुछ वर्षों बाद आप ने निर्धारित योजना के अन्तर्गत एक भव्य भवन का मानचित्र स्वयँ आपने हाथों से तैयार किया और इस भवन को रामदास सरोवर के मध्य में निर्माण करने की घोषणा की। इस कार्य का शिलान्यास करने के लिए आप जी ने अपने पुराने मित्र लाहौर निवासी चिश्ती सम्प्रदाय के आगू साई मियाँ मीर जी को आमन्त्रित किया। सन् 1588 की 3 जनवरी को सूफी पीर मियाँ मीर जी ने सरोवर के मध्य भव्य भवन की आधारशिला रखी, किन्तु उनसे पहली ईट कुछ तिरछी रखी गई। उसी समय राजमिस्त्री ने उसये उखाड़ सीधा कर दिया। यह देख कर गुरूदेव जी बहुत क्षुब्ध हुए और उन्होंने कहा – हम ने भवन की नींव अटल रखने के लिए विशेष रूप से महापुरूषों को आमन्त्रित किया था और तुमने उनकी रखी हुई ईट को उखाड़ कर पलट दिया है। यह काम अच्छा नहीं हुआ। अब इस भवन के ध्वस्त होने का भय बना रहेगा और इसका कभी न कभी पुनः निर्माण अवश्य ही होगा। कालान्तर में यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। अहमदशाह अब्दाली ने तोपों से हरि मन्दिर को ध्वस्त कर दिया।

जब भव्य भवन निर्माण का शुभारम्भ गुरूदेव जी ने सांई मियाँ मीर जी द्वारा करवा दिया तो संगत कार सेवा (श्रमदान) के लिए सक्रिय हुई। दूर-दराज से श्रद्धालु अपना अपना योगदान देने के लिए उमड़ पड़े। तभी गुरूदेव जी ने इस नव-निर्माण हेतु भवन का नाम हरि मन्दिर रखा और इसका कार्य संचालन बाबा बुड्ढा जी की देखरेख में होने लगा। गुरूदेव जी ने हरिमन्दिर साहब के लिए चार प्रवेश द्वारों का निर्देश दिया। जिसका सीधा संकेत यही था कि यह पवित्र स्थान चारों वर्गों के व्यक्ति के लिए सदैव खुला है और समस्त मानवमात्र प्रत्येक दिशा से बिना किसी भेदभाव से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रवेश कर सकता है। कुछ प्रमुख श्रद्धालु सिक्खों ने नक्शे और भवन की स्थिति पर संशय व्यक्त करते हुए आप जी से प्रश्न किया कि सभी प्रकार के विशेष भव्य भवन बहुत ऊँचे स्थान पर निर्मित किये जाते हैं और वह नगर के सब से ऊँचे भवनों में से होते हैं किन्तु आप ने हरि मन्दिर को बहुत नीचे स्थान पर बनाया है और भवन की ऊँचाई भी न के बराबर है। इसका क्या कारण है? उत्तर में गुरूदेव जी ने कारण स्पष्ट करते हुए कहा कि – मन्दिरों की संख्या अनन्त है किन्तु हरि मन्दिर कोई नहीं, हरि के दर्शन तो तभी मिलते हैं जब मन नम्रता से झुक जाए, निर्मल हो जाए। अत: भवन के निर्माण में विशेष ध्यान रखा गया है कि सभी जिज्ञासु श्रद्धा भावना में नम्र होकर झुक कर नीचे उतरे, जिससे अभिमान जाता रहे क्योंकि अभिमान प्रभु मिलन में बाधक है। अत: भवन की ऊँचाई भी कम रखी गई है ताकि नम्रता की प्रतीक बन सके। इसके अतिरिक्त भवन को सरोवर के जल की सतह पर रखा गया है, बिल्कुल वैसे ही जैसे कमल का फूल, जल के सदैव ऊपर रहता है, कभी डूबता नहीं। इसका सीधा सा अर्थ है कि श्रद्धालुओं को गृहस्थ में रहते हुए माया से निर्लेप रहना चाहिए – जैसे कमल पानी में रहते हुए उससे निर्लेप रहता है।

जब हरि मन्दिर की परिक्रमा से जोड़ने के लिए दर्शनी डियोडी तथा पुल का निर्माण किया गया तो गुरूदेव जी ने रहस्य को स्पष्ट किया कि यह पुल एकता का प्रतीक है। सभी सम्प्रदायों के लोग धर्म-निरपेक्षता के बल पर भव सागर को पार कर हरि में विलय हो जायेंगे।

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