सभ महि जानउ करता एक ॥ दासु सगल का छोडि अभिमानु ॥
यथा:
सतसंगति महि बिसासु होइ हरि जीवत मरत संगारी ॥३॥
आसा म. 5 वां पृष्ठ 120
श्री गुरू अर्जुनदेव जी को पड़ौसी क्षेत्रों से सन्देश मिलने लगे कि आप जी कृपया हमारे यहाँ भी पदार्पण करें। विशेषकर डल्ला निवासी तो गुरूदेव जी को लेने आ पहुँचे। उनके स्नेह के बँधे श्री गुरूदेव डल्ला क्षेत्र में पधारें। अधिकांश संगत के वृद्ध गण श्री गुरू अमर दास जी से गुरू दीक्षा प्राप्त कर सिक्खी में प्रवेश प्राप्त किये हुए थे। अत: उन्होंने गुरूदेव का भव्य स्वागत किया और अपनी धर्मशाला में गुरूदेव को ठहराया। गुरूदेव जी स्थानीय धर्मशाला और उसके संचालन के कार्य को देखकर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने निर्णय लिया कि इसी प्रकार की धर्मशालाओं का स्थान स्थान निर्माण और विकास किया जाये, जिससे जनसाधारण के लिए प्रत्येक प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध हों ताकि कोई भूखा, प्यासा तथा बीमार न रहे। गुरूदेव जी ने अपने प्रवचनों में पीड़ित प्राणियों की सेवा पर बल दिया और कहा – मानवमात्र की सेवा ही उस प्रभु की सच्ची आराधना है।
मै बधी सचु धरम साल है ॥ गुरसिखा लहदा भालि कै ॥
पैर धोवा पखा फेरदा तिसु निवि निवि लगा पाइ जीउ ॥१०॥
गुरूदेव जी को मिलने जहाँ साधारण श्रद्धालु आते थे, वहीं स्थानीय प्रशासकीय अधिकारी भी आते। आपके प्रवचनों का उनके मन पर गहरा प्रभाव देखने को मिता। उनमें से सैय्यद अज़ीम खान भी श्री गुरू चरणों में उपस्थित हुए और उन्होंने गुरूदेव जी से निवेदन किया कि वह दोआबा क्षेत्र में भी कोई विशेष प्रचार केन्द्र की स्थापना करे, जिससे स्थानीय जनता लाभांवित हो सके। गुरूदेव जी ने प्रार्थना स्वीकार की और उसके साथ दोआबा क्षेत्र में विचरण करने लगे। यहीं मध्य दोआबा में गुरूदेव जी को एक रमणीक क्षेत्र भा गया। आपने वह स्थान स्थानीय किसानों से खरीद कर प्रशासन से संगत के नाम पढ़ा लिखवा लिया। सैय्यद अजीम खान यह स्थान धर्मशाला के नाम देना चाहता था, किन्तु गुरूदेव जी ने वह स्वीकार नहीं किया और उसे समझाते हुए कहा – भूमि इत्यादि समय व्यतीत होने के पश्चात् झगड़ों का कारण बन जाती है। अत: भला इसी में ही है कि भूमि मूल्य देकर खरीदी जाये। आप जी ने इस क्षेत्र का नाम करतारपुर रखा और बसाना प्रारम्भ किया। कुछ व्यापारियों को नि:शुल्क भूमि देकर व्यापार करने और यहीं बसने के लिए आकर्षित किया। नवम्बर, 1594 ईस्वी में आपने यहाँ एक धर्मशाला की आधारशिला भी रखी। पेय जल की आपूर्ति के लिए एक विशेष कुआं भी खुदवाया। आपके यहाँ पदार्पण की याद को चिरस्थाई बनाने के लिए स्थानीय संगत ने एक पुराने शीशम के वृक्ष के तने का स्तम्भ बनवा कर स्थापित किया। संगत में से कुछ श्रद्धालुओं ने कुएं का नाम माता नँगा जी की याद में गंगसर कर दिया। गुरूदेव ने साध संगत की महिमा दृढ़ करवाते हुए अपने प्रवचनों में कहा
साधसंगि मलु लाथी ॥ पारब्रहमु भइओ साथी ॥ नानक नामु धिआइआ ॥ आदि पुरख प्रभु पाइआ॥
सोरठि, महला 5वां पृष्ठ 625 यथा
महा पवित्र साध का संगे।
जिसु भेटत लागै प्रभ रंगु ॥१॥
आसा, महला 5वां पृष्ठ 89
श्री गुरूदेव जी ने अपने प्रवचनों में जन-साधारण को बताया कि मानव को अपने कल्याण के लिए साध संगत में अवश्य ही आते रहना चाहिए क्योंकि साध संगत वह स्थान है, जहाँ मानव जीवन को सफल करने की युक्ति मिल जाती है।
गुरूदेव जी अपने मूल लक्ष्य में सफल हुए। जनसाधारण उनको क्रान्तिकारी विचारधारा से बहुत प्रभावित हुए और वे सभी रूढ़िवादी जीवन त्याग कर एकेश्वर की आराधना में व्यस्त रहने लगे। आप जी को अमृतसर से बाहर प्रचार दौरे पर लम्बा समय हो गया था। अत: आपने लौटने का मन बनाया और अमृतसर पहुँचे।