जब श्री गुरू रामदास जी के सच्चरखण्ड गमन और श्री गुरु अर्जुनदेव जी के गुरू गद्दी पर विराजमान होने का समाचार दूर प्रदेशों में पहुँचा तो वहाँ की संगत काफिले बना बना कर पाँचवे गुरूदेव जी के दर्शनों को उमड़ पड़ी। गुरूदेव जी प्रदशों से आने वाली संगत के स्वागत के लिए सदैव तत्पर रहते थे। आप को एक दिन सूचना मिली कि काबुल नगर से आने वाली संगत संध्या तक अमृतसर पहुँच जाएगी। गुरूदेव जी संगत की प्रतीक्षा करते रहे किन्तु संगत नहीं पहुँची। अन्त में आपने मन बनाया कि संगत की सुध-बुध लेने हमें ही चलना चाहिए। आपने एक बैलगाड़ी में भोजन इत्यादि वस्तुएं ली और साथ में आपनी पत्नी श्रीमती राँगा जी को चलने को कहा और इस प्रकार रास्ते भर खोज करते-करते आपने उन्हें अमृतसर से पाँच कोस दूर खोज ही लिया। सभी यात्री विश्राम करने के विचार से शिविर बना कर लेटने की तैयारी कर रहे थे। तभी आपने उनके जत्थेदार से भेंट की और कहा – हम आप के लिए भोजन- जल इत्यादि की व्यवस्था कर रहे हैं, कृपया इसे स्वीकार करें। आप ने समस्त संगत को भोजन कराया और उनको राहत पहुँचाने के विचार से पँखा इत्यादि किया। कुछ बुजुर्ग बहुत थके हुए थे, उनका शरीर अधिक चलने के कारण पीड़ा के कष्ट को सहन नहीं कर पा रहा था। अत: गुरूदेव जी ने उनके शरीर को दबा कर सहलाना प्रारम्भ कर दिया। ठीक इस प्रकार आपकी सुपत्नी नँगा देवी जी ने भी बुजुर्ग महिलाओं को राहत पहुँचाने के विचार से सहलाना आरम्भ कर दिया। इस प्रकार रात व्यतीत हो गई।
अमृतबेला में संगत सुचेत हुई और शौच स्नान से निवृत होकर अमृतसर की ओर प्रस्थान कर गये। अमृतसर पहुँचने पर समस्त दर्शनार्थियों के हृदय में गुरूदेव जी के दर्शनों की अभिलाषा चर्म सीमा पर थी। वे समागम स्थल पर पहुँचने के लिए जल्दी में थे, इसलिए उन्होंने अपने सामान तथा जूतों की देखभाल के लिए उसी रात वाले सेवादार को तैनात कर दिया और स्वयँ गुरूदरबार में उपस्थित हुए। वहाँ कीर्तन तो हो रहा था किन्तु गुरूदेव अभी अपने आसन पर विराजमान नहीं थे, पता करने पर मालूम हुआ कि गुरूदेव जी प्रात:काल ही आसन पर विराजमान हो जाते हैं, किन्तु रात से वह स्वयँ काबुल की संगत की अगवानी करने गये हुए हैं, शायद लौटे नहीं हैं। यह सुनते ही संगत के मुखी सिक्ख सतर्क हुए और उन्होंने पूछा कि कहीं वह युवा जोड़ी तो नहीं जो रात को हमारे लिए खाना लाये थे और रात भर पंखा इत्यादि करके संगत की सेवा करते रहे हैं? उनका विचार ठीक था कि वह गुरू अर्जुन देव जी ही थे। वे सभी कहने लगे कि हम ने तो उनको अपने सामान की देखभाल के लिए नियुक्त किया है। जल्दी ही उनको अपनी भूल का अहसास हुआ। वे लौट आये और देखते क्या हैं कि गुरूदेव जी और उनकी पत्नी सँगत के जूते साफ कर रहे हैं। संगत के मुखिया ने गुरूदेव जी के चरण पकड़ लिए और क्षमा याचना की। उत्तर में गुरूदेव जी ने कहा – इसमें क्षमा माँगने की क्या बात है? हमें तो आप की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए पहुँचना ही था।