एक माता की प्रेमपूर्वक भेंट (Shri Guru Arjan Dev Ji)
श्री गुरू राम दास जी द्वारा मसंद (मिशनरी) प्रथा बहुत सफलतापूर्वक चल रही थी। ऊँचे आचरण वाले मसंद स्थान स्थान पर जा कर साधारण जिज्ञासुओं को गुरमति सिद्धान्तों को अपने समागमों द्वारा समझाते थे और सिक्खी का प्रचार करते थे। श्रद्धालू लोग उन्हें गुरूदेव जी का प्रतिनिध जानकर अपनी आय का दशमात्र गुरू घर के कार्यो के लिए देते थे। यह लोग प्रत्येक भक्तजन की दी हुई भेंट बहुत संजो कर सुरक्षित रूप में गुरू जी के दरबार में पहुँचा देते थे। एक बार एक मसंद प्रचार दौरे पर था कि उसने एक विशेष ग्राम में गुहार लगाई कि वह गुरूदेव जी के पास वापिस लौट रहा है। अतः आप लोग अपना अपना यथाशक्ति योगदान गुरू घर के नव-निर्माण में डालें। एक ग्राम सिक्खों का था। सभी ने कुछ न कुछ गुरू कोष के लिए दिया। वहाँ एक वृद्धा माता भी अकेली रहती थी। उसके पास गुरूदेव जी के कोष में डालने को कुछ भी न था किन्तु उस के हृदय में इच्छा थी कि मैं भी कुछ अंश भेंट रूप में हूँ। वह माता कल्पना कर ही रही थी कि वह मसंद (मिशनरी) गुहार लगाता हुआ हाजिर हुआ और बोला – माता जी कुछ गुरू दरबार में भेजना हो तो भेज दें। माता जी के पास कुछ था ही नहीं, वह उस समय अपने आंगन में झाडू लगा रही थी। जब इकट्ठा किया हुआ कूड़ा बाहर फेंकने लगी तो तभी मसंद सिक्ख ने सहजभाव से अपनी झोली आके कर दी। वह कूड़ा उसने बहुत प्रेमपूर्वक श्रद्धा से दी गई भेट मान कर एक पोटली में बाँध लिया। इस पर माता जी को भूल का अहसास हुआ, उसके नेत्रों से विरह के आँसू छलक पड़े, किन्तु मसंद जी तो जा चुके थे।
श्री गुरू अर्जुनदेव जी के दरबार में यह मसंद सभी श्रद्धालुओं की भेंट लेकर उपस्थित हुए और सभी भेंट गुरूदेव जी के कोषाध्यक्ष को सौंप दी किन्तु गुरूदेव जी ने उसे विशेष रूप से बुलाकर पूछा कि मसंद जी – आपने सभी भेंट जमा करवा दी है, कोई रह तो नहीं गई। मसंद जी ने उत्तर दिया – जी हाँ, मैंने ऐसा ही किया है। गुरूदेव जी ने उसे पुनः सतर्क करते हुए कहा कि देखो, कोई भेंट रह तो नहीं गई। मसंद जी ने सोच कर कहा – हाँ गुरूदेव जी ! मैंने सभी वस्तुओं का हिसाब दे दिया है। इस पर गुरूदेव जी ने उसे कहा कि वह पोटली कहाँ है, जो एक माता जी ने विशेष रूप से हमारे लिए दी है। तब मसंद जी को याद आया कि एक माता जी ने सफाई करते समय कूड़ा ही दिया था। वह कूड़ा ले आये। गुरूदेव जी ने उसे छांटने का आदेश दिया, उस कूड़े में से एक बेरी की गुठली निकली, जिसे गुरूदेव जी प्रेम भेट मानकर दर्शनी ड्योढ़ी को एक छोर पर बीज दिया, जो कि समय पा कर एक वृक्ष का रूप धारण कर दिया।