उधर जहाँगीर चाहता था कि किसी भी मूल्य पर तख्त को प्राप्त करना चाहिए। अत: इस संधि को दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया। शेख अहमद सरहिंदी को शेख फरीद बुखारी के अतिरिक्त जहाँगीर भी उसे अपना पीर – मुर्शद मानने लगा। इस प्रकार इन दोनों ने जहाँगीर को तख्त दिलवाने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया। इन लोगों का विश्वास जहाँगीर पर जब दृढ़ हो गया तो शेख अहमद सरहिंदी ने अपनी पीरी के प्रभुसता से अकबर को प्रभावित किया कि वह अपने बड़े शहजादे (राजकुमार) को अपना उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा करे क्योंकि उसका सिहांसन पर अधिकार बनता है। तद्पश्चात समय आने पर खुसरों को स्वयं ही उसका अधिकार मिल जाएगा। इस पर अकबर भी दबाव में आ गया तथा उसने जहाँगीर को राजतिलक दे दिया।
अकबर की मृत्यु के पश्चात् जहाँगीर ने शेख अहमद सरहिंदी को बहुत सम्मान देना शुरू कर दिया और तब से सभी सरकारी कार्यो में उसका परामर्श ही आदेश अथवा कानून होता। इस प्रकार धीरे धीरे जहाँगीर एक कठपुतली सा बनकर रह गया तथा शेख अहमद सरहिंदी बेताज बादशाह बन गया। दूसरे शब्दों में सरकार के नीति संगत सभी फैसले शेखअहमद सरहंदी के ही होते जबकि बादशाह जहाँगीर केवल ऐश्वर्य तथा विलासता के कारण शराब में डूबा रहता। ऐसी दशा में शहजादा (राजकुमार) खुसरों ने तख्त प्राप्ति के लिए अपने ही पिता के विरूद्ध बगावत कर दी। इस बगावत को दमन करने का बीड़ा भी उसके जरनैल शेख फरीद बुखारी ने अपने सिर ले लिया तथा सैनिक बल से खुसरों को खदेड़ दिया और काबुल की ओर भागते हुए खुसरों को चिनाव नदी पार करते समय पकड़ लिया गया और जहाँगीर के लाहौर पहुँचने पर उसको मृत्यु दण्ड दे दिया गया। शेख अहमद सरहिंदी ने खुसरों के इस वृतान्त से अब अनुचित लाभ उठाने की योजना बनाई। जिस के अनुसार उसने इस्लाम के विकास में बाधक, साहिब श्री गुरू अर्जुन देव जी को युक्ति से समाप्त करवाने का विचारबनाया। गुरूदेव पंचम पातशाह जी को खुसरो बगावत काण्ड में जोड़ कर दोष आरोपण किया कि अर्जुन (गुरू) ने खुसरों की सेना को भोजन (लंगर) इत्यादि से सेवा कर सहायता की तथा उसने अपने ग्रंथ में इस्लाम को तौहीन (निन्दा) लिखी है। इस लिए उसको तलब (पेश करना) किया जाए तथा निरीक्षण के लिए अपना नया ग्रंथ भी साथ लाए। इस आदेश के जारी होने पर गुरूदेव ने आदि (गुरू) ग्रंथ साहब एवं कुछ विशिष्ट सिक्खों की देखरेख (सेवा सम्भाल) के लिए साथ लिया और वे खुद लाहौर पहुँच गये। वहाँ पर उन्हें बागी खुसरों को संरक्षण देने के आरोप में बागी घोषित कर दिया तथा दूसरे आरोप में कहा गया कि वे इस्लाम के विरूद्ध प्रचार करते हैं।
इसके उत्तर में गुरूदेव ने बताया कि खुसरो तथा उसके साथियों ने गुरू के लंगर गोइंदवाल (साहब) में भोजन अवश्य किया था किन्तु मैं उन दिनों तरनतारन में था। वैसे भोजन प्राप्त करने गुरू नानक के दर पर कोई भी व्यक्ति आ सकता है। फकीरों का दर होने के कारण वहाँ राजा व रंक का भेद नहीं किया जाता। अत: किसी पर भी कोई प्रतिबन्ध लगाने का तो प्रश्न ही नही उठता। आपके पिता सम्राट अकबर अपने समय पर इस दर पर आये थे और भोजन ग्रहण कर स्वयं को सन्तुष्ट अनुभव किया था।
इस उत्तर को सुनकर सम्राट जहाँगीर सन्तुष्ट हो गया किन्तु शेख अहमद सरहिंदी तथा उसके साथियों ने कहा कि उनके ग्रंथ में इस्लाम धर्म (मजहब) का अपमान क्यों किया है। जब कि उस में हजरत मुहम्मद साहिब की तारीफ की जानी चाहिए। इस पर गुरूदेव जी ने साथ में आए सिक्खों से आदि (गुरू) ग्रंथ साहब का प्रकाश करवा कर हुक्मनामा लेने का आदेश दिया। तब जो हुक्म प्राप्त हुआ – वह इस प्रकार है।
खाक नूर करिद आलम दुनिआइ।।
असमान जिमी दररवत आब पैदाइस रखुदाइ (1) अंक 723 यह हुक्मनामा / वाक्या जहाँगीर को बहुत अच्छा लगा परन्तु शेख अहमद सरहिंदी को अपनी बाजी हारती हुई अनुभव हुई और वह कहने लगा कि इस कलाम को इन लोगों ने निशानी लगा कर रखा हुआ है इसलिए उसी स्थान से पढ़ा है। अतः किसी दूसरे स्थान से पढ़ कर देखा जाए। इस पर जहाँगीर ने अपने हाथों से कुछ पृष्ठ पलट कर दाबारा पढ़ने का आदेश दिया। इस दफा भी जो हुक्मनामा आया, वह इस तरह है।
अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे,. एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौ मंदे ||
(अंक 1349) इस शब्द को श्रवण कर जहाँगीर प्रसन्न हो गया परन्तु दुष्ट जुण्डली ने दोबारा कह दिया कि यह कलाम भी इन लोगों ने कण्ठस्थ किया मालूम पड़ता है। इस लिए कोई ऐसा (आदमी) व्यक्ति को बुलाओ जो गुरमुखी अक्षरों का ज्ञान रखता हो, ताकि उन से इस कलाम के बारे ठीक पता लग सके।
तब एक गैर – सिक्ख व्यक्ति (आदमी) को बुलाया गया जो कि गुरमुखी पढ़ना जानता था। उसको (गुरू) ग्रंथ साहिब में से पाठ पढ़ने का आदेश दिया गया। उस व्यक्ति ने जब (गुरू) ग्रंथ साहिब से पाठ पढ़ना शुरू किया तब निम्नलिखित हुक्मनामा (वाक) आया।
‘विसर गई सभ ताति पराई जब ते साथ संगति मोहि पाई।
(अंक 1299) इस हुक्मनामे को सुनकर जहाँगीर पूर्णतः सन्तुष्ट हो गया किन्तु जुण्डली के लोग पराजय मानने को तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा ठीक है परन्तु इस ग्रंथ में हजरत मुहम्मत साहिब तथा इस्लाम की तारीफ लिखनी होगी। इस के उत्तर में गुरूदेव जी ने कहा कि इस ग्रंथ में धर्म निरपेक्षता तथा समानता के आधार के इलावा किसी व्यक्ति विशेष की प्रशंसा नहीं लिखी जा सकती तथा ना ही किसी विशेष सम्प्रदाय की स्तुति लिखी जा सकती है। इस ग्रंथ में केवल निराकार परमात्मा की ही स्तुति की गई है। जहाँगीर ने जब यह उत्तर सुना तो वह शान्त हो गया। परन्तु शेख अहमद सरहिंदी तथा शेख फरीद बुरखारी जो कि पहले से आग बबूले हुए बैठे थे। उनका कहना था कि यह तो बादशाह की तौहीन है और (गुरू) अर्जुन की बातों से बगावत की बू आती है। इसलिए इसको माफ नहीं करना चाहिए। इस प्रकार चापलूसों के चुंगल में फंसकर बादशाह भी गुरूदेव पर दबाव डालने लगा कि उन को उस (गुरू) ग्रंथ (साहिब) में हजरत मुहम्मद साहब और इस्लाम की तारीफ में जरूर कुछ लिखना चाहिए। गुरूदेव ने इस पर अपनी असमर्था दर्शाते हुए स्पष्ट इन्कार कर दिया। बस फिर क्या था। दुष्टों को अवसर मिल गया। उन्होंने बादशाह को विवश किया कि (गुरू) अर्जुन बागी हैं जो कि बादशाह की हुक्म अदुली एवं गुस्ताखी कर उसकी छोटी सी बात को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं इसलिए उको मृत्यु दण्ड दिया जाना ही उचित है।
इस तरह बादशाह ने (गुरू जी) पर एक लाख रूपये दण्ड का आदेश दिया और वह स्वयँ वहाँ से प्रस्थान कर सिंध क्षेत्र की ओर चला गया क्योंकि वह जानता था कि चापलूसों ने उससे गलत आदेश दिलवाया है, बादशाह के चले जाने के पश्चात् दुष्टों ने लाहौर के गर्वनर मुर्तजा खान से मांग की कि वह (गुरू) अर्जुन से दण्ड की राशि वसूल करे। गुरूदेव जी ने दण्ड का भुगतान करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया क्योंकि जब कोई अपराध किया ही नहीं तो दण्ड क्यों भरा जाए ? लाहौर की संगत में से कुछ धनी सिक्खों ने दण्ड की राशि अदा करनी चाहिए किन्तु गुरूदेव ने सिक्खों को मना कर दिया और कहा संगत का धन निजी कामों पर प्रयोग करना अपराध है। आत्म सुरक्षा अथवा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए संगत के धन का दुरुपयोग करना उचित नहीं है।
गुरूदेव जी ने उसी समय साथ में आए हुए सिक्ख सेवकों को आदेश दिया कि वे ‘आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ के स्वरूप की सेवा सम्भाल करते हुए अमृतसर वापस लौट जाएं। गुरूदेव को अनुभव हो गया था कि दुष्ट जुण्डली के लोग, आदि गुरू ग्रंथ साहिब की वाणी में मिलावट करवा कर परमेश्वर की महिमा को समाप्त करने की कोशिश अवश्य करेंगे क्योंकि उनकी इस्लामी प्रचार में लोकप्रिय वाणी बाधक प्रतीत होती थी। वास्तव में वे लोग नहीं चाहते थे कि जन साधारण की भाषामें आध्यात्मिक ज्ञान बांटा जाए क्योकि उनकी तथाकथित पीरी – फकीरी (गुरू डेम) की दुकान की पोल खुल रही थी।
देवनेत ही दुष्ट लोग अपने षड्यन्त्र में सफल नहीं हुए, वैसे अपनी ओर से उन्होंने कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी थी। इसलिए किसी नये कांड से पहले (गुरू) ग्रंथ साहिब के स्वरूप को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना जरूरी था।।
बहुत लम्बे समय से मुर्तजा खान लाहौर का गर्वनर चला आ रहा था। अकबर के शासनकाल में जब लाहौर में अकाल पड़ गया था तथा समय समय चेचक, हैजा, प्लेग, गिलटी, ताप इत्यादि बीमारियों के कारण बहुत सा जानी नुकसान हुआ था। उस समय गुरूदेव जी द्वारा जनता की बिना भेदभाव से की गई निष्काम सेवा भाव की मुर्तजा खान देख चुका था, इसलिए गुरूदेव का वहां लोकप्रिय होना तथा सांई मीयां मीर जी की गुरूदेव के साथ घनिष्ट मित्रता भी उस से छिपी हुई नहीं थी। गुरूदेव का वह बहुत बड़ा ऋणी था, क्योंकि सूखा पढ़ने के समय गुरूदेव ने किसानों का लगान सम्राट अकबर से माफ करवा दिया था। जिसके लिए वह भी गुरूदेव का प्रशंसक बन गया था। इसलिए मुर्तजा खान जुण्डली के लोगों से सहमति नहीं रखता था। वह नहीं चाहता था कि उस के हाथों से कोई भयंकर भूल का कार्य हो। अत: वह बहुत बड़ी कठिनाई में था, क्योंकि एक तरफ बादशाह के पीर व मुर्शद का आदेश था, जिसकी स्थिति उस समय किसी बेताज बादशाह से कम न थी और उस से अनबल करने का सीधा अर्थ गवर्नरी को खोना था।
मुर्तजा खान अभी इसी दुविधा में था कि उसकी समस्या दीवान चन्दू लाल ने हल कर दी। चन्दू ने कहा (गुरू) अर्जुन देव को मेरे हवाले कर दो। मुझे उस से अपना पुराना हिसाब चुकता करना है क्योकि उसने कुछ लोगों के कहने में आ कर मेरी लड़की का रिश्ता अपने साहबजादे के लिए अस्वीकार कर दिया है। अब मैं दबाव डाल कर रिश्ते को पुनः स्वीकार कर लेने को उसे विवश कर दूंगा तथा दण्ड की राशि खजाने में यह जानकर जमा करवा दूंगा कि लड़की को दहेज दिया है। मुर्तजा खान इस प्रस्ताव पर तुरन्त सहमत हो गया तथा उसने गुरूदेव को चन्दू लाल के हवाले कर दिया।
उधर चन्दू के मन में विचार चल रहा था कि यह कोई खास कठिन बात नहीं। प्रशासन के भय से (गुरू) अर्जुन उसकी लड़की का रिश्ता स्वीकार कर लेगा तथा उसकी व्यक्तिगत सफलता भी इसी में है कि वह परीक्षा के समय मुर्तजा खान के काम आए। ऐसा करने से उसका अपना भी गौरव बढ़ेगा तथा और अधिक बड़ी पदवी प्राप्त होगी।
इस तरह गुरूदेव जी को वह अपनी हवेली में ले आया तथा कई विधि-विधानों से गुरूदेव को मनाने के प्रयास करने लगा ताकि रिश्तेदारी कायम की जा सके।
इस पर वह अपनी बात कहता हुआ बोला, इस सब में हम दोनों का भला है। आप को प्रशासन के क्रोध से मुक्ति प्राप्त होगी और मेरी बिरादरी में स्वाभिमान रह जाएगा और प्रशासन की ओर से भी प्रशंसा प्राप्त होगी। किन्तु गुरूदेव जी ने उसकी एक नहीं मानी और अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। उसके घर का अन्न जल भी स्वीकार न किया। केवल एक ही उत्तर दिया कि उन्हें संगत का आदेश है कि उसकी पुत्री का रिश्ता स्वीकार नहीं करना क्योंकि उसने गुरू नानक देव जी के दर-घर की मोरी (छोटी सी कुटिया) कहा है तथा स्वयं को चौबारा (महल) का मालिक व्यक्त किया है, लेकिन गुरूदेव को मनाने के लिए चन्दू ने बहुत से उल्टे-पुल्टे हथकडे अपनाए। अन्त मे।वह तरह तरह से धमकी देने लगा किन्तु बात तब भी बनती दिखाई न दी। उसने तंग आ कर सख्त गर्मी के दिनों में गुरूदेव जी को भूखे-प्यासे ही अपनी हवेली के एक कमरे में बन्द कर दिया। । तत्पश्चात रात को एकान्त पा कर, चन्दू की पुत्रवधू (बहू) जो कि गुरू घर की सिक्ख (शिष्य) थी, गुरूदेव के लिए शरबत लेकर उपस्थित हुई तथा विनती करने लगी, कि गुरू जी जल ग्रहण करें तथा उसके ससुर को क्षमा दान दें क्योंकि वह नहीं जानता कि वह क्या अवज्ञा कर रहा है। गुरुदेव ने उसे सांत्वना दी और कहा – पुत्री मैं विवश हूँ, संगत के आदेश के कारण मैं यह जल ग्रहण नहीं कर सकता। प्रातः काल जब सरकारी कर्मचारी (कोतवाल) चंदू के पास हाल जानने के लिए आया तो चंदू ने यह कह कर गुरूदेव जी को उस के हवाले कर दिया कि अर्जुन ने मेरी शर्त नहीं मानी। अतः अब मैं इसको आप के हवाले करने के लिए तैयार हूँ। बस फिर क्या था, सरकारी दुष्टों को निध रित षड्यन्त्र के अनुसार कार्य करने का अवसर प्राप्त हो गया। उन्होंने चन्दू को तुरन्त अपने विश्वास में लिया और गुरूदेव को अपनी हिरासत में लेकर लाहौर के शाही किले में ले आये। इस तरह शेख अहमद सरहंदी ने परदे की ओट में रह कर शाही काजी से गुरूदेव के नाम फतवा (आरोप) जारी करवा दिया। फतवे में कहा गया कि (गुरू) अर्जुन दण्ड की राशि अदा नहीं कर सका। अत: वह इस्लाम कबूल कर ले अन्यथा मृत्यु के लिए तैयार हो जाए। गुरूदेव जी ने तब उत्तर दिया कि यह शरीर तो नश्वर है। इस का मोह कैसा? मृत्यु का भय कैसा? प्रकृति का नियम अटल है जो पैदा हुआ है उसका विनाश अवश्य होना है। मरना जीना परमेश्वर के हाथ में है, इसलिए इस्लाम स्वीकार करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आपने जो मनमानी करनी है उसे कर डालो। इस पर काजी ने इस्लामी नियमावली अनुसार ‘यासा’ के कानून के अन्तर्गत मृत्यु दण्ड का फतवा दे दिया तथा कहा – जैसे दूसरे बागियों को चमड़े के खोल में बंद कर मृत्यु के घाट उतारा गया है, ठीक उसी प्रकार इस बागी (गुरू जी) को भी गाय के चमड़े में मढ़ कर खत्म कर दो। इस से पहले कि गाय का ताजा उतरा हुआ चमड़ा प्राप्त होता, शेख अहमद सरहिंदी ने अपने रचे षड्यन्त्र के अनुसार, गुरूदेव को यातनाएं देकर इस्लाम स्वीकार करवा लेने की योजना बनाई। गुरूदेव जी को उसने किले के आँगन में कड़कती धूप में खड़ा करवा दिया गुरूदेव जी रात भर से ही भूखे प्यासे थे, क्योंकि चंदू के यहाँ उन्होंने अन्न जल स्वीकार नहीं किया था। ऐसे में शरीर बहुत दुर्बलता अनुभव करने लगा था किन्तु वह तो आत्मबल के सहारे अडोल खड़े थे। जल्लाद भी गुरू जी पर दबाव डाल रहा था, ‘इस्लाम स्वीकार कर लो, क्यों अपना जीवन व्यर्थ में खोते हो।’ परन्तु गुरूदेव जी इस सब कुछ से साफ इन्कार कर रहे थे। दुष्टों ने गुरूदेव को तब डराना-धमकाना प्रारम्भ किया तथा कोष में आकर उनको एक लोह (रोटी बनाने का एक बहुत बड़ा तवा) पर बिठा दिया जो उस समय जेठ माह की कड़ाके की धूप में आग जैसी गर्म थी। लोह (तवी) पर भी गुरूदेव जी अडोल रहे। जैसे कोई आदमी तवे पर नहीं बल्कि कालीन पर विराजमान हो।
गुरूदेव पर हो रहे इस तरह के अत्याचारों की सूचना जब लाहौर नगर की जनता तक पहुँची तो सांई मीयां मीर जी तथा बहुत सी संगत किले के पास पहुँची तो उन्हों पाया कि किले के चारों ओर सख्त पहरा होने के कारण अन्दर जाना असम्भव है। अनुमति केवल सांई मीयां मीर जी को मिल सकी। यातनाएं झेलते हुए गुरूदेव जी को देख कर सांई जी ने आश्चर्य प्रकट किया। तब गुरूदेव ने कहा, ‘कि आपने एक दिन ब्रह्मज्ञानी के अर्थ ‘सुखमनी वाणी’ के अनुसार पूछे थे। मैं आज उन पंक्तियों के अर्थों के अनुरूप जीने का प्रयास कर रहा हूँ। सब कुछ उस प्रभु की इच्छाओं अनुसार ही हो रहा है। किसी पर भी कोई गिला शिकवा नहीं। फकीरों की रमज़ (हृदय की बात) फकीरी ने समझी। इस तरह सांई मीयां मीर जी ब्रह्मज्ञान का उपदेश ले कर वापस लौट आए।
गुरूदेव जी पर जब कोई असर न हुआ तो जल्लादों ने एक बार फिर गुरूदेव को चुनौती दी तथा कहा अब भी समय है, सोच विचार कर लो, अभी भी जान बख्शी जा सकती है, इस्लाम स्वीकार कर लो और जीवन सुरक्षितकर लो। गुरूदेव जी ने उनके प्रस्ताव को पुनः अस्वीकर कर दिया तथा जल्लादों ने गुरूदेव जी के सिर में गर्म रेत डालनी आरम्भ कर दी। सिर में गर्म रेत के पड़ने से गुरूदेव के नाक से खून बहने लगा और वे बेसुध हो गए। जल्लादों ने जब देखा कि उनका काम यासा कानून के विरूद्ध हो रहा है तो उन्होंने गुरूदेव जी के सिर में पानी डाल दिया ताकि यासा के अनुसार दण्ड देते समय अपराधी का खून नहीं बहना चाहिए। सिर में पानी डालने से भी जब कोई परिणाम न निकला तो जल्लादों ने परेशान होकर उनको उबली देग में बिठा दिया।
‘ज्यों जलु में जलु आये खटाना त्यों ज्योति संग जोत समाना’ के महावाक्य के अनुसार गुरूदेव ने जब शरीर छोड़ दिया तो अत्याचारियों ने इस जघन्य हत्याकाण्ड को छिपाने के लिए गुरूदेव जी की पार्थिव देह को रात्रि के अंधकार में रावी नदी के जल में बहा दिया। इस दर्घटना को छुपाने के लिए कोतवाल ने दीवान चंदू को तुरन्त बुला भेजा और उसको अपने पक्ष में ले लिया। दीवान चंदू से कहा गया क्योंकि अर्जुन को हमने तुम्हारे यहाँ से हिरासत में लिया था, इसलिए अफवाह फैला कर लोगों को गुराह करें कि गुरूदेव जी ने स्नान करने की इच्छा प्रकट की थी इसलिए वह नदी में बह कर शायद डूब गये अथवा बह गये होंगे। उनका वापस न लौटने का कारण भी यही हो सकता है।
गुरूदेव की इस्लाम स्वीकार करवाने की वास्तविक योजना में शेख अहमद सरहिंदी भले ही विफल रहा किन्तु गुरूदेव जी की शहीदी से वह सन्तुष्ट था, परन्तु इस शहीदी काण्ड के मुख्य जिम्मेवार के रूप में प्रकट हो जाने से बचने के लिए वह प्रयत्न करने लगा। अपने को निर्दोष साहिब करने के लिए उसने कुछ उपाय किये, क्योंकि वह सांई मीयां जी के वहाँ पर आ जाने से घबरा गया था तथा वह देख रहा था कि लाहौर के गवर्नर मुर्तजा खान और वहाँ की जनता गुरूदेव पर अथाह श्रद्धा भक्ति रखती है। वास्तव में वह जानता था कि उसके दबाव के कारण ही जहाँगीर न गुरूदेव पर दण्ड लगाया था। दण्ड न चुकता करने की परिस्थिति में तो वह शांत था परन्तु जहाँगीर की चुप्पी को मृत्यु दण्ड की परिभाषा देने का असल जिम्मेवार तो वह स्वयँ था। उसने स्वयँ को निर्दोष साबित करने के लिए गुरूदेव के शहीद काण्ड को चन्दू की घरेलू शत्रुता से जोड़ दिया। जबकि बाकी रहती जिम्मेवारी से बचने के लिए, उसने ‘तुजाकि जहांगीरी’ नामक पुस्तक (जो कि जहाँगीर की स्वजीवनी के रूप में प्रसिद्ध है किन्तु वास्तव में वह एक रोजनामचा ही है) में निम्नलिखित इबारत लिखवा दी – ‘गोइंदवाल यातनाएं दे कर हत्या कर दी जाए। उन दिनों बादशाह जहांगीर का तथाकथित पीर – मुर्शद, शेख अहमद सरहिंदी था। अत: वह अपने आप को बेताज बादशाह समझता था, इसलिए ‘तुजाकि जहांगीरी’ में वह अपनी मनमानी बातें लिखवाने का अधिकार समझता था। इबारत लिखवाते समय उसने सावधानी यह रखी कि स्वयँ को निर्दोष (बरी) साहिब कर सके तथा पूरा कीचड़ जहाँगीर पर फेंक सके। जहाँगीर तो वास्तव में इस षड्यन्त्र से अनभिज्ञ था। वह नहीं जानता था कि उससे अनजाने में एक भयंकर भूल करवा कर उसको बदनाम किया जा रहा है।
नोट – मुगलकाल का इतिहास बाबर के समय से ही उनके व्यक्तिगत परामर्शदाता, उनके जीवन, ‘वृतान्त’ के रूप में लिखते चले आ रहे थे। ये लोग बादशाह के बहुत निकटवर्ती तथा निष्ठावान समझे जाते थे। अकबर नामा भी इसी प्रकार अस्तित्व में आया था क्योंकि अकबर अनपढ़ था। ठीक इसी प्रकार यह प्रथा आगे बढ़ी। ‘तुजाकि जहाँगीरी’ नामक पुस्तक भी जहांगीर के व्यक्तिगत परामर्शदाताओं ने लिखी है। क्योंकि जहाँगीर का बहुत अधिक समय शराब और शवाब के चक्कर में व्यर्थ चला जाता था। शेख अहमद सरहिंदी ने अपनी पीरी – फकीरी के बलबूते से लाभ उठाते हुए जहाँगीर के व्यक्तिगत परामर्शदाता को प्रभावित कर उसको अपने विश्वास में ले कर उस से ‘तुज़ाकि जहाँगीरी’ में अपनी इच्छा अनुसार निम्नलिखित इबारत लिखवा दी।