तो आपने सन् 1590 ईस्वी के लगभग पड़ौसी क्षेत्र मांझा व दोआबा में प्रचार करने का मन बनाया। इसके पीछे कारण यह भी था कि जनसाधारण प्रभु भक्ति त्याग कर रूढ़िवादी विचारों के अन्तर्गत कब्रिस्तानों में बने पीरों के मकबरे इत्यादि की पूजा करने लगे थे। इसके अतिरिक्त समाज में जाति प्रथा को आधार बना कर निम्न श्रेणियों का दमन व शोषण जोरों पर था। जबकि आप मानव समाज को एकता के सूत्र में बाँध कर उनका कल्याण करना चाहते थे। आप का दृढ़ विश्वास था कि समाज में अधिकांश दुखों का कारण समाज का वर्गीकरण है। आप सर्वप्रथम जंयाला कस्बे में पहुँचे। वहाँ पर आपका भाई हिंदाल जी ने हार्दिक स्वागत किया। हिंदाल जी इन दिनों वृद्धावस्था में थे। आप जी ने बहुत लम्बे समय तक श्री गुरू अमर दास जी के पास गोईदवाल तथा उसके पश्चात् श्री गुरू राम दास जी के पास अमृतसर लंगर तैयार करने की सेवा की थी। आपको श्री गुरू रामदास जी ने आशीष देकर सम्मानित किया था और उसके पश्चात् मसंद (मिशनरी) उपाधि देकर प्रचार हेतु उन्हीं के क्षेत्र में भेज दिया था। गुरू देव जी ने उनकी प्रचार सेवाओं पर प्रसन्नता व्यक्त की और उनको केवल एक परब्रह्म परमेश्वर (अकाल पुरूष) की उपासना पर बल देने को कहा और समझाया कि आप का एकमात्र लक्ष्य लोगों को कब्रिस्तानों और मूर्ति पूजा से हटाना है ताकि समाज में एकता आ जाये।
आप कुछ ही दिनों में प्रचार करते हुए खडूर नगर पहुँचे। वहाँ गुरूदेव जी की अगवानी करने श्री गुरू अंगद देव जी के पुत्र दातु जी व दासु जी आये और वे आपको अपने यहाँ ले गये। गुरूदेव का उन्होंने भव्य स्वागत किया। श्री दातु जी ने विनम्र भाव से आप से विनती की कि उन्हें क्षमादान दिया जाये क्योंकि युवावस्था में उन्होंने बहकावे में आकर तीसरे गुरू श्री गुरु अमरदास जी को लात मार दी थी और उनके डेरे का सामान बांध कर वापिस खडूर लौटते समय रास्ते में डाकुओं द्वारा सामान छीन लेने पर, छीना झपटी में एक लट्ठ डाकुओं ने दातू जी को दे मारा था, जिसकी पीड़ा उस लात पर अभी भी रूकी हुई है। गुरूदेव जी ने उनकी पश्चाताप भरी विनती स्वीकार करते हुए, उनकी लात की मालिश अपने हाथों से कर दी। जिससे उनके मन का बोझ हल्का हो गया और धीरे धीरे पीड़ा हट गई।
श्री गुरू अर्जुन देव जी दातू व दासू जी से विदाई लेकर गोइंदवाल पहुँचे। वहाँ आपका ननिहाल था और आप का बाल्यकाल यहीं मामा मोहन जी तथा मोहरी जी की छत्र-छाया में व्यतीत हुआ था। वे आपसे बहुत स्नेह करते थे। अतः आपजी कुछ दिन उनके प्यार के बंधे वहीं ठहरे रहे। तद्पश्चात आप आगे बढ़ते हुए गाँव सरहाली पहुँचे। उस समय मध्यान्तर का समय था। भोजन की व्यवस्था के लिए स्थानीय निवासियों ने ताजे उबले हुए चावलों पर घी – शक्कर डाल कर आपके समक्ष प्रस्तुत किये। आपने प्रेम से प्रस्तुत भोजन की बहुत प्रशंसा की, जिस कारण उस ग्राम का नाम चोला साहब पड़ गया। आप जी ने श्रद्धालुओं को केवल एक निराकार प्रभु पर आस्था रखने पर बल दिया और शब्द उच्चारण किया –
हरि धनि संचन, हरिनाम भोजन, एह नानक कीनो चोलाः।
गुरूदेव आगे बढ़ते हुए खानपुर क्षेत्र में पहुँचे। यहाँ की अधिकांश जनता सखी सरवरों के अनुयायी थे। उन्होंने गुरूदेव जी का कड़ा विरोध किया। कुछ समृद्ध किसानों ने गुरूदेव जी को अपमान भरे शब्द भी कहे, किन्तु गुरूदेव जी शान्तचित्त व अडोल रहे। इस पर सिक्खों ने कहा – गुरू जी ! हमें लौट जाना चाहिए, जहाँ सतकार न मिले, वहाँ उन के भले के लिए जाने के लिए आप को क्या पड़ी है? उत्तर में गुरूदेव ने सभी को सांत्वना दी और कहा – वस्तव में हमारा कार्यक्षेत्र यही है, यहीं सब से अधिक गुरमति के प्रचार प्रसार की आवश्यकता है। आप का निर्णय सुनकर सभी स्तब्ध रह गये। इन कठिन परिस्थितियों में एक स्थानीय खेतीहर मजदूर ‘हेमा’ आप के सम्मुख उपस्थित हुआ और प्रार्थना करने लगा – हे गुरूदेव ! कृपया, आप मेरे यहाँ विश्राम के लिए चलें। गुरूदेव जी ने उसका अनुरोध स्वीकार किया और उस की झोंपड़ी में चले गये। उस श्रद्धालु सिक्ख ने गुरूदेव जी और संगत की यथाशक्ति खूब सेवा की। गुरूदेव जी उस गरीब हेमा जी की सेवा देखकर रीझ उठे और स्नेहवश उच्चारण करने लगे –
भली सुहावी छापरी जा महि गुन गाए ॥ कित ही कामि न धउलहर जितु हरि बिसराए ॥१॥ रहाउ ॥ अनदु गरीबी साधसंगि जितु प्रभ चिति आए ॥ जलि जाउ एहु बडपना माइआ लपटाए ॥१॥
महला 5 वां पृष्ठ .
गाँव खानपुर का पड़ौसी ‘खारा’ गाँव था। यह गाँव प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर दृश्य प्रस्तुत करता देख गुरूदेव जी यहीं रूक गये। आपको इस रमणीक स्थल ने ऐसा आकर्षित कियाकि आपने यहाँ एक विशाल प्रचार केन्द्र बनाने की योजना बना डाली। मुख्य कारण, यहाँ के स्थानीय किसानों को कब्रों की पूजा से हटा कर दिव्य ज्योति परब्रह्म परमेश्वर से जोड़ना था। आप अनुभव कर रहे थे कि गुरमति के प्रचार के लिए स्थानीय लोगों के निकट बसना अति आवश्यक है। आपने एक तालाब को केन्द्र मान कर आसपास की भूमि किसानों से मूल्य देकर खरीद ली और तालाब को एक विशाल पक्के सरोवर का स्वरूप देना प्रारम्भ कर दिया। साथ ही इस सरोवर के एक किनारे एक भव्य भवन का निर्माण भी करवाने लगे, जिस में स्थानीय लोगों को एकत्रित कर प्रतिदिन सत्संग किया जा सके। निर्माण के कार्य में श्रमदान करने के लिए दूर-दराज से संगत आने लगी। संगत की भारी भीड़ को सभी प्रकार की सुविएं प्रदान करने के लिए एक छोटे से नगर की आधारशिला भी रखी जिसका नाम तरनतारन रखा। देखते ही देखते गुरूदेव जी के आदेश पर उनके अनुयाइयों ने वर्ष का कार्य महीनों में ही समाप्त कर दिया। इस बीच स्थानीय जाट किसानों ने भी गुरू की महिमा आँखों देखी, वे भी गुरूदेव जी के धीरे धीरे निकटता उत्पन्न करने लगे। गुरूदेव जी जब भी दरबार सजाते, उसमें केवल एक हरि नाम की ही चर्चा करते और वह अपने प्रवचनों में प्रायः एक बात पर बल देते – हे सत्य पुरूषों ! हमें अपने श्वासों की पूंजी व्यर्थ नहीं खोनी चाहिए, यही वह समय है, जिस के सदुपयोग से हम यह मानव जन्म सफल कर सकते हैं।
भई परापति मानुख देहुरीआ ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ॥ अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥१॥ सरंजामि लागु भवजल तरन कै ॥ जनमु ब्रिथा जात रंगि माइआ कै ॥१॥ रहाउ ॥
राग आसा, महला 5 वा, पृष्ठ-378
गुरूदेव की युक्ति सफल सिद्ध हुई। बहुत से बड़े किसान जो कब्रों की पूजा करते थे, वह धीरे – धीरे गुरूदेव जी के प्रवचनों के माध्यम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सभी प्रकार के व्यर्थ कर्म त्याग दिये और केवल हरि नाम का यश करने लगे।