गुरू घर के कीर्तनीये, सत्ता व बलवंड का रूठना - Guru Ghar ke Kirtaniye Satta Balavand ka Ruthana

गुरू घर के कीर्तनीये, सत्ता व बलवंड का रूठना (Satta Balwand)

भाई मरदाना जी की अंश में से दो रबाबी भाई सत्ता जी व बलवंड जी, श्री अर्जुन देव जी के दरबार में प्रतिदिन प्रात:काल नियमानुसार कीर्तन (चौकी भरा) किया करते थे। कीर्तन के आकर्षण से स्वाभाविक ही था कि संगत प्रात:काल के दीवान में अधिक एकत्र हुआ करती थी, इसलिए कीर्तनी भाइयों को अभिमान हो गया कि हमारे द्वारा कीर्तन करने पर ही गुरू के दरबार की शोभा बनती है। यदि हम कीर्तन न करें तो गुरू घर की रौनक समाप्त हो जायेगी। उन्हीं दिनों उनकी बहन का शुभ विवाह निश्चित हो गया। उन्होंने गुरूदेव के समक्ष वेतन के अतिरिक्त आर्थिक सहायता की याचना की। इस पर गुरूदेव ने कहा कि आप की उचित सहायता की जायेगी। किन्तु उन दिनों वर्षा न होने के कारण देश में अकाल पीड़ितों की संख्या लाखों में पहुँच गई थी। गुरूदेव जी का ध्यान अकाल पीड़ितों की सहायता पर केन्द्रित था। सूखे के कारण दूर-दराज से संगत का आवागमन भी कम था, इसलिए गुरू घर की आय में भी भारी कमी आ गई थी। दूसरी ओर ‘हरि मन्दिर’ के निर्माण कार्यों पर भी भारी राशि व्यय हो रही थी। गुरूदेव का सिद्धान्त था कि धन संचित करके न रखा जाये। अतः गुरूदेव के कोष में संचित धन का प्रश्न ही नहीं था। वह तो जैसे धन आता उस प्रकार उसका उचित प्रयोग कर देते थे।

कीर्तनी भाइयों ने गुरूदेव को एक विशेष दिन की समस्त आय (चढ़ावा) उनको देने की प्रार्थना की। गुरूदेव ने उनकी इच्छा सहर्ष स्वीकार कर ली, परन्तु विडम्बना यह कि अकाल के प्रकोप के कारण उस दिन संगत का जमावड़ा बहुत कम हुआ, जिस कारण ‘कार भेंट’ (चढ़ावा) की राशि बहुत ही कम हुई। गुरूदेव ने उस दिन की समस्त कार भेंट सत्ता व बलवंड भाइयों को ले जाने को कह दिया। किन्तु उनके कथन अनुसार वह धन चौथाई था। जब उनकी आशाओं की पूर्ति न हुई तो रोष प्रकट करने लगे। इस पर गुरूदेव ने उन्हें समझाया कि हमने सहर्ष ही, आपकी इच्छा के अनुसार दिया है। इसमें रूष्ट होने की क्या बात है? उत्तर में रबाबी भाइयों ने गुरूदेव पर आरोप लगाया कि आपने संगत को इस दिन कार भेंट अर्पण करने से वर्जित कर रखा है, इसलिए तुच्छ धन ही भेट में आया है। गुरूदेव ने उन्हें सांत्वना दी और कहा – प्रभु भली करेंगे। आप अगले दिन की भी कार भेंट ले जाये। किन्तु वे नहीं माने और कटु वचन कहते हुए घर को चले गये। दूसरे दिन वे सुबह के समय कीर्तन करने भी दरबार में उपस्थित न हुए। गुरूदेव ने एक सेवक को सत्ता व बलवंड के घर, उनको बुला लाने को भेजा। परन्तु वे लोग योजनाबद्ध कार्यक्रम अनुसार विद्रोह करके बैठे हुए थे। उन्होंने गुरूदेव के सेवक का अपमान कर दिया और अभिमान में कहने लगे कि हमीं से गुरू दरबार की शोभा बनती है। यदि हम कीर्तन न करें तो कभी संगत का जमावड़ा हो ही नहीं सकता और हमें ही धन के लिए तरसना पड़ रहा है। गुरूदेव ने यह कड़वा उत्तर सुना, परन्तु धैर्य और नम्रता की मूर्ति, एक बार स्वयँ उनको मनाने उनके घर पहुँचे। रबाबी भाइयों ने इस बार भी गुरूदेव का स्वागत न करके उनको कटु वचन कह डाले किन्तु गुरूदेव शान्त बने रहे। गुरूदेव ने उन्हें बहुत समझाया परन्तु वे अपनी हठधर्मी पर अड़े रहे और कहने लगे कि हमारे ही पूर्वज थे भाई मरदाना जी, जिनके कीर्तन से गुरू नानक देव जी को प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी।

श्री गुरू अर्जुन देव जी ने जब यह वाक्य उनके मुँह से सुना तो वह अपने पूर्वज गुरूजनों का अपमान सहन ही न कर सके। वह तुरन्त वहाँ से लौट आये और समस्त संगत को आदेश दिया कि इन गुरू निंदकों को कोई मुँह न लगाये। यदि हम से किसी व्यक्ति ने इनकी सिफारिश की तो हम उसका मुँह काला करके गधे पर बिठा कर उसके गले में पुराने जूतों की माला डालेंगे और समस्त नगर में उसका जलूस निकालेंगे। यह कड़े आदेश सुनकर समस्त संगत सतर्क हो गई। किसी व्यक्ति ने भी उनको मुँह न लगाया।

जल्दी ही रबाबी भाइयों का भ्रमजाल टूट गया। उनके पास कोई और जीविका अर्जित करने का साधन तो था नहीं, इसलिए उनकी आर्थिक स्थिति पर संकट के बादल छा गये। दूसरी तरफ गुरूदेव स्वयँ कीर्तन करने लगे। उन्होंने बाल्यकाल में गुरू घर के कीर्तनीयों से कीर्तन व संगीत की विद्या प्राप्त की हुई थी। उन्होंने संगत को प्रोत्साहित किया कि आज से हम स्वयँ मिलजुल कर कीर्तन किया करेंगे। वैसे भी कुछ गुरू सिक्ख परिवर्तन चाहते थे और उनके हृदय में भी कीर्तन करने की तीव्र अभिलाषा थी। जैसे ही गुरूदेव जी ने अपना प्रिय वाद्य सिरंदा लेकर मंच पर कीर्तन करना प्रारम्भ किया, कुछ भक्तजन अन्य वाद्य लेकर साथ में बैठ गये और सहज भाव से कीर्तन करने में सहयोग देने लगे। प्रभु कृपा से समां ऐसा बंधा कि उनको अन्य दिनों की अपेक्षा आन्तरिक आनन्द की अनुभूति हुई। जिससे समस्त संगत को मनोबल मिला। इस प्रकार गुरूदेव ने संगत को आदेश दिया कि प्रतिदिन हम सभी मिलकर प्रभु स्तुति किया करेंगे। जो कि हर दृष्टिकोण से फलदायक होगी। इस प्रकार गुरूदेव ने सिक्ख जगत में एक नई परम्परा प्रारम्भ कर दी कि संगत में से कोई भी कीर्तन करने के योग्य है।

दूसरी तरफ रबाबी सत्ता जी व बलवंड जी गरीबी के कारण रोगी हो गये। कोई भी उनको गुरू शापित जानकर सहायता न करता, इसलिए वे अनेको कष्ट भोगने लगे। किन्तु एक भक्तजन ने उन्हें दुखी जानकर, उनका मार्गदर्शन किया और उन्हें बताया कि एक व्यक्ति लाहौर नगर में रहता है। जिन्हें लोग भाई लद्धा परोपकारी कह कर सम्बोधन करते हैं, वह लोगों के बिगड़े काम करवा देते हैं और हर प्रकार की सहायता करते हैं। यदि वह आप को गुरूदेव से क्षमा दिलवा दें तो आपके कष्टों का निवार्ण हो सकता है। रबाबियों को ये परामर्श उचित जान पड़ा और वे लाहौर नगर पहुँच गये। उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए क्षमा याचना के लिए भाई लद्धा जी से विनती की, जो उन्होंने तुरन्त स्वीकार कर ली। भाई लद्धा जी ने गुरू आदेश अनुसार स्वयँ को दण्ड देने के लिए स्वांग रच लिया। पहले अपना मुँह काला कर लिया। फिर गले में जूतों की माला पहन कर गधे पर सवार हो गये और पीछे ढोल बजवाना शुरू कर दिया। इस प्रकार वह गुरू दरबार में उपस्थित हो गये। गुरूदेव ने उनका स्वांग देखा और मुस्कुरा दिये और कहा – भाई लद्धा जी, आप वास्तव में परोपकारी हैं। आपकी सिफारिश हम नहीं टाल सकते। अत: हम इन रबाबियों को क्षमा करते हैं। यदि दोनों भाई पूर्वज गुरूजनों की स्तुति करें। रबाबियों भाइयों ने गुरूदेव के चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया और कहा – हम अपने किये पर शर्मिदा हैं। हमें अब तक बहुत दण्ड मिल चुका है और वे पूर्व गुरूजनों की स्तुति में छंद उच्चारण करने लगे। इन रचनाओं को बाद में गुरूदेव ने मानता प्रदान कर दी और अपने नये सम्पादित ग्रंथ में सम्मिलित कर लिया, जिन्हें आज सत्ता – बलवंड की ‘वार’ कहा जाता है।

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