श्री गुरू अर्जुन देव जी एक दिन रामदास सरोवर की परिक्रमा कर रहे थे तो उनकी दृष्टि एक ब्राह्मण पर पड़ी जो अपने समक्ष एक मूर्ति स्थापित कर उस की पूजा अर्चना में व्यस्त था। उसने सभी प्रकार की सामग्री का प्रदर्शन इस प्रकार किया हुआ था कि बरबस वहाँ से गुजरने वाले उस की ओर आकर्षित हो रहे थे। गुरूदेव जी ने देखा कि ब्राह्मण उस समय हाथ जोड़ कर व आँखे बन्द करके मूर्ति के सम्मुख कुछ बुद – बुदा रहा था। एक नज़र देख कर गुरूदेव जी आगे बढ़ गये। जैसे ही गुरूदेव जी कुछ कदम आगे पहुँचे, ब्राह्मण ने आँखे खोली और ऊँचे स्वर में कुछ गिले-शिकवे भरे अन्दाज में कहना शुरू किया – स्वयँ को गुरू कहलवाते हैं किन्तु भगवान की प्रतिमा को अभिनंदन भी नहीं करते। यह शब्द सुनकर गुरूदेव जी रूक गये और उन्होंने ब्राह्मण को सम्बोधन करके कहा – आप का मन कहीं और है, किन्तु केवल आँखे बन्द करके भक्ति करने का नाटक कर रहे हो जो कि बिल्कुल निष्फल है। भक्ति तो मन की होती है न की शरीर की। यदि वास्तव में हृदय से प्रभु भक्ति में लीन हो तो हमारे आने का तुम्हें बोध होना ही नहीं चाहिए था? इस व्यंग पर ब्राह्मण बहुत छटपटाया किन्तु गुरूदेव के कथन में सत्य था। इस पर उसने कहा – माना मैं तो भक्ति करने का अभिनय कर रहा था किन्तु आपने तो भगवान की मूर्ति को ना ही नमस्कार किया और ना ही सम्मान? यह सुनते ही उन सभी सिक्खों की बरबस हँसी छूट गई, जो अब ब्राह्मण के उलझने के कारण गुरूदेव जी के संग वहीं खड़े हो गये थे। उत्तर में गुरूदेव ने बड़े शान्त भाव से कहा – हे ब्राह्मण ! हम तो उस दिव्य ज्योति को कण कण में समाया हुआ अनुभव कर रहे हैं, हमारा हर क्षण उस परम पिता परमेश्वर (सच्चिानंद) को प्रणाम में व्यतीत होता है, बस अन्तर इतना है कि हम धर्मी होने का प्रदर्शन नहीं करते। हमारी मानों, आप भी इस झूठे प्रदर्शन को त्याग कर अपने हृदय रूपी मन्दिर में उस सच्चिदानंद को खोजो, जिस से तुम्हारा कल्याण हो सके। ब्राह्मण को जब उसकी आशा के विरूद्ध खरी-खरी सुनने को मिली तो वह बहुत छटपटाया और कहने लगा – हमारे पूर्वज वर्षों से इस विधि से आराधना करते आ रहे हैं और शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है।
गुरूदेव जी ने उसे पुन: समझाने का प्रयत्न करते हुए कहा – आपने शास्त्रों में ईश्वर का सर्वत्र विद्यमान होना भी पढ़ा होगा? यदि वह सर्वत्र विद्यमान है तो आप को इस प्रतिमा की क्या आवश्यकता पड़ गई थी। वास्तव में आप अपनी जीविका अर्जित करने के लिए ढोंग रचते रहते हैं, न कि प्रभु की उपासना। आप को अपने भीतर प्रभु दृष्टिगोचर नहीं हुआ। ऐसे में वह पत्थर के ठीकरों में से कहाँ मिलेगा जो कि आप ने स्वयं तैयार किये हैं।
घर महि ठाकुरु नदरि न आवै ॥ गल महि पाहणु लै लटकावै ॥ भरमे भूला साकतु फिरता ॥ नीरु बिरोलै खपि खपि मरता ॥ जिसु पाहण कउ ठाकुरु कहता ॥ ओहु पाहणु लै उस कउ डुबता ॥ गुनहगार लूण हरामी ॥ पाहण नाव न पारगिरामी ॥ गुर मिलि नानक ठाकुरु जाता ॥ जलि थलि महीअलि पूरन बिधाता ॥
सुही, महला 5वाँ, पृष्ठ738
गुरूदेव जी ने उस ब्राह्मण को वहीं अपने प्रवचनों में कहा – जो व्यक्ति सत्य की खोज न करके केवल कर्मकाण्डों तक सीमित रहता है, उसका कार्य उसी प्रकार है जैसे कोई मक्खन प्राप्त करने की आशा से पानी को मथना शुरू कर दे।