विचि करता पुरख रखलोआ। वाल न विगा होइआ।
सोरठि, महला 5वा जब सभी औपचारिकताएं सम्पूर्ण हो गई तो गुरूदेव जी ने समस्त संगत को आदेश दिया कि वे सभी ‘आदि ग्रन्थ’ के समक्ष नतमस्तक हो और घोषणा की कि यह ग्रन्थ समस्त मानव समाज के लिए संयुक्त रूप में कल्याणकारी है। इस ग्रन्थ में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है। जो भी मनुष्य हृदय से पढ़ेगा, सुनेगा अथवा विचारेगा, वह सहज ही इस सँसार रूपी भव सागर से पार हो जाएगा। अत: आज से समस्त संगत ने ‘गुरू शब्द’ के भण्डार ‘आदि ग्रन्थ’ साहब का हम से अधिक सम्मान करना है क्योंकि यह शरीर तो नाशवान है और समय की सीमाओं में बँधा है किन्तु ‘शब्द गुरू’ देश, काल और शारीरिक आवश्यकताओं से ऊपर है। वास्तव में हमारे में और ग्रन्थ के ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि सिद्धान्त है ‘नाम’ और ‘नामी’ व्यक्ति में जैसे कोई अन्तर नहीं होता, ठीक उसी प्रकार ‘शब्द रूपी गुरू’ दिव्य ज्योति के समान आदर के पात्र है। अत: समस्त संगत आगामी जीवन में ‘गुरू शब्द’ की ओट ले भले ही गृह में शोक हो अथवा हर्ष हो। आप जी ने अन्त में एक विशेष घोषणा की कि इन दिनों ‘आदि बीड ग्रन्थ साहब’ की सेवा का कार्यभार बाबा बुड्ढा जी पर होगा। जब तक कुछ नये सेवकों को प्रशिक्षित नहीं किया जाता।
दिन भर संगतों का दर्शनार्थ ताँता लगा रहा। रात्रि को बाबा बुड्ढा जी ने गुरूदेव जी से आज्ञा मांगी कि अब इस समय आदि बीड़ को किस स्थान पर ले जाया जाये तो आप ने कहा कि ‘ग्रन्थ’ का सुखासन स्थान हमारा निजी विश्राम स्थान ही होगा। ऐसा ही किया गया। गुरूदेव जी ने उस दिन से ‘आदि ग्रन्थ’ की बगल में फर्श पर अपना बिस्तर लगवा लिया और आगामी जीवन में वह ऐसा ही करते रहे।