पण्डित विश्वम्बर दत्त जी सिखों के विवेक पूर्ण तर्को के सामने टिक नहीं सके और परिहास का कारण बन गये। विवश होकर उन्होंने गरूड़ पुराण की कथा बीच में ही समाप्त कर दी और गुरूदेव से निवेदन करने लगे मुझे आज्ञा दें कि मैं अपने निवास स्थान कांशी से कुछ अन्य ग्रथं मंगवा लू और उनकी कथा प्रारम्भ करू जिससे यहां कि स्थानीय संगत संतुष्ट हो जाएंगी। गुरूदेव ने आज्ञा दे दी। पण्डित जी ने अपने पुत्र पिताम्बर दत्त को कांशी भेजने के लिए तैयारी आरम्भ कर दी। उसने गुरूदेव से रास्ते के खर्च के लिए भारी राशी ली और शुभ मुहर्त निकाल कर सभी प्रकार के पूजा-पाठ इत्यादि किये फिर वह अपने पुत्र को नगर के बाहर छोड़ने चले गये। रास्ते में एक गधा हिन-हिना पड़ा। पण्डित जी ने इस बात को अपशगुन मान लिया और बाप-बेटा दोनों लोट आये।
पण्डित जी का लड़का रास्ते में से ही लोट आया है यह जानकर गुरूदेव ने पण्डित से इस का कारण पुछा? पण्डित जी ने बताया कि मैंने तो समस्त गृह-नक्षत्रों का ध्यान रखकर शुभ मुहर्त निकाला था किन्तु रास्ते में एक गधे के हिन-हिनाने से अपशगुन हो गया अत: हम लोट आये। यह स्पष्टीकरण सुनकर संगत में हंसी फैल गई और मारे हँसी के सभी लोट-पोट होने लगे। इस पर गुरूदेव ने पण्डित जी से पूछा – एक गधे का हिन-हिनाना अधिक महत्त्वपूर्ण और बलशाली है। तुम्हारे शुभ-मुहर्त के पूजा-पाठ से? एक गधे का हिन-हिनान एक सहज क्रिया है क्या वह पूजा-पाठ की शक्ति को काट सकता है? यदि तुम्हें अपने पूजा-पाठ पर इतना भी भरोसा नहीं तो तुम्हारी सुनाई कथा पर किसी का क्या भरोसा बन्धेगा। इस प्रश्न का उत्तर पण्डित जी को नहीं सूझा वह अपना सा मुंह लेकर बैठ गया। गुरूदेव ने संगत को सम्बोध न किया और कहा – गुरू नानक देव जी का पंथ इन निअर्थक कर्म-काण्डों से उपर उठ कर है। आओ! तुम्हें उसका एक व्यवहारिक रूप दिखाएं। उन्होनें तुरन्त एक सिख को बुलाया और उसे आदेश दिया कि आप संगला दीप (श्री लंका) जाओं, वहां पर श्री गुरू नानक देव जी की एक पुस्तक हैं। जोकि हमें बाबा बुडढ़ा जी ने बताई है कि वहां के स्थानीय बौद्ध भिक्षुकों के साथ गोष्टी के रूप में संगृह की गई है। उसे ले आओ। सिख ने तुरन्त गुरूदेव को कहा – सत्य वचन, मैं अभी जाता हूँ और वह शीश झुका कार प्रस्थान करने लगे। किन्तु गुरूदेव ने पूछा रास्ते के लिए कोई खर्च इत्यादि की आवश्यकता हो तो बताओं। सिख ने उत्तर दिया आप का आर्शीवाद साथ में है। जहां भी मैं पहुँचुगां वहां मुझे आपके सिख हर प्रकार की सहायता करेंगे। आपके शिष्य समस्त भारतवर्ष में फैले हुए जो हैं। गुरूदेव ने उन्हें आशिष देकर विदा किया।
गुरूदेव का यह विशेष दूत लगभग तीन माह में संगला दीप पहुंच गया। जब वहां के स्थानीय नरेश को मालूम हुआ कि श्री गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी श्री गुरू अरजन देव जी ने श्री गुरू नानक देव के संबंध में लिखी गई पुस्तके मंगवाई है तो उसने सिख को हार्दिक स्वागत किया और अति सत्कार में कोई कोर-कसर नहीं रहने दी। संगला दीप के तत्कालीन शासक ने अपने सभी पुस्तकालयों में जाचं करवाई किन्तु नानक देव जी द्वारा की गई गोष्टि नहीं मिली वह कहीं गुम हो चुकी थी। अंत में नरेश ने बौद्ध भिक्षुकों द्वारा रचित एक पुस्तक सिख को दे दी जिसका नाम प्राण संगली था। इस पुस्तक मे बौद्ध भिक्षुकों द्वारा प्राणयाम करने की विधियां इत्यादि लिखी थी। वह पुस्तक देकर नरेश ने सिख को विदा किया और श्री गुरू अरजन देव जी के नाम एक पत्र दिया जिस में उसने क्षमा याचना की थी कि वह आप की धरोहर (इमानत) को सुरक्षित न रख सका इसलिए उसे खेद है।
सिख, वह पुस्तक लेकर लगभग छ: माह में लोट आया। गुरूदेव ने वह पत्र पढ़ा और उस पुस्तक को जाचा तो पाया यह रचना श्री गुरू नानक देव जी की विचार धारा के विपरीत है अतः इस का हमारे लिए कोई महत्व नहीं। इस पर उस पुस्तक को गुरूदेव ने अग्नि भेंट कर दिया और उसकी राख ब्यासा नदी में जल प्रवाह करवा दी।