पृथी चन्द गुरू अरजन देव जी के बढ़ते हुए प्रताप को देखकर बहुत परेशान था क्योकि वह स्वयं गुरू बनना चाहता था। अत: वह अब गुरू बनने की युक्तियां पर विचार करने लगा। उसने सोचा कि यदि वह गुरू – दरबार को आर्थिक क्षति पहुंचाए तो गुरू अरजन विचलित हो जाएंगे और वह अपने पक्ष के मसदों (मिशनारियों) की सहायता से गुरू गद्दी पर कब्जा करने में सफल हो जाएंगा। उसने इसी आशय से नगर की चुंगी इत्यादि की आमदनी अपने कब्जे में करनी प्रारम्भ कर दी और इस के अतिरिक्त अपने विशेष व्यक्तियों को नगर के बाहर प्रमुख रास्तों पर तैनात कर दिया। वे लोग दूर-दराज से आने वाली संगत से कार भेंट (दशमांश) की राशी लेकर पृथी चंद के कोष में डाल देते और संगत को गुरू अरजन देव जी द्वारा चलाये गये लंगर में भेज देते। इस प्रकार गुरू घर की आय घटते-घटते लगभग समाप्त होने लगी परन्तु खर्च ज्यू का त्यू ही जारी रहें। आर्थिक दशा के बिगड़ने के कारण धीरे – धीरे लंगर मस्ताना रहने लगा अर्थात कभी कभी लंगर में भोजन की भारी कमी देखने को मिलती। जहां कभी उत्तम पदार्थ परोसे जाते थे अब उसमें केवल चने की रोटी ही मिलती। किन्तु लंगर प्रथा जारी रखने के लिए गुरू अरजन देव जी ने पहले अपनी पत्नी गंगा देवी जी के गहने दिये फिर घर का सामान इत्यादि बेच दिया इसके अतिरिक्त आप जी ने अपने मामा मोहन जी मोहरी से कुछ धन कर्ज भी मांगवाया। अपार जन समूह के समक्ष भला इस धन से दैनिक व्यय कहां पूरे होने वाले थे। प्रतिदिन लंगर का स्तर निम्न होता गया और संगत में निराशा फैलने लगी। उन्हीं दिनों गुरूदेव जी के मामा जी जिन्हें संगत प्यार से भाई गुरदास जी के नाम से सम्बोधन करती थी अपने घर गोईदवाल से गुरू दरबार में हाजरी भरने आये। जब उन्होंने लंगर में प्रसाद ग्रहण किया तो लंगर का निम्न क्षेणी का स्तर देखकर स्तब्ध रह गये। उत्तर में माता भानी जी ने अपने बड़े लड़के पृथीचन्द की करतूतो के विषय में विशेष जानकारी दी और कहा – वह बहुत कपटी मनुष्य है मेरे बार-बार समझाने पर भी किसी विधी बात मानता ही नहीं। इस पर भाई गुरदास जी ने प्रमुख सिक्खों के साथ इस गम्भीर समस्या पर विचार-विर्मश किया और संगत को जागरूक करने के लिए एक विस्तृत योजना बनाई जिस के अंतर्गत उन्होंने दूर-दराज से आने वाली संगत को पृथीचन्द के छल-कपट से अवगत करवाने लगे। इस प्रकार कुछ दिन यह अभियान तीव्र गति से चलाया गया। जैसे ही संगत जागरूक हुई वैसे-वैसे लंगर की काया कल्प हो गया। फिर से गुरू घर के लंगर का स्तर बहुत ऊंचा हो गया। किन्तु पृथीचन्द समय-समय नये नये बरखेड़े करने लगा। उसने एक नया उपद्र यह किया कि स्वयं गुरू गद्दी लगा कर बैठने लग गया। कुछ नये दर्शनार्थी भूल मे पड़ जाते थे इस प्रकार वहां पृथीचंद बहुत भारी अभियान करता हुआ नई आई संगत को गुमराह करता हुआ भांति-भांति के आर्शीवाद देता। किन्तु उसके पास आध्यात्मिक ज्ञान तो था नहीं जिस कारण उस की जल्दी कलेही खुल जाती। संगत को जब सत्य का ज्ञान होता तो वह पश्चाताप करने के लिए पुन: श्री गुरू अरजन देव जी के दरबार में उपस्थित हो आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सन्तुष्ट होकर लोट जाते इस प्रकार धीरे-धीरे पृथीचंद की यह नीति भी बूरी तरह असपाल सिद्ध हुई। संगत के जागरूक होने पर पृथी चन्द जन साधारण की दृष्टि में ही भावना से देखा जाने लगा। इस प्रकार अपने को असफल पाकर उसके मन में भारी कुण्ठा उत्पन्न हो गई वह श्री गुरू अरजन देव जी को अपने शत्रु की दृष्टि से देखने लगा। इस के विपरीत श्री गुरू अरजन देव जी सदैव धैर्य की साक्षात मूर्ति, शांत व गम्भीर बनकर अड़ोल रहते जैसे कुछ हुआ ही नहीं, वह कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं करते प्रत्येक क्षण मधुर मुस्कान से सभी का स्वागत करते। उनके स्वभाव में कभी उतार व चढ़ाव नहीं दिखाई देता। आप का विश्वास रहता कि सभी कुछ हरि इच्छा से ही हो रही है जो कि सभी के हित में है। इस लिए आप कठिन प्रस्थितियों में भी कभी विचलित दिखाई नहीं देते।
पृथी चन्द चारों तरफ से निराश हो गया उसके मसंद भी उस का साथ छोड़कर चले गये। बोखलाहट में पृथीचन्द ने पंचायत बुला ली और पंचायत के समक्ष समस्त पैतृक सम्पति के बट बार की बात कह दी, उस का मानना था कि मेरी आय लगभग समाप्त हो गई है मुझे मेरा अधिकार मिलना चाहिए। पंचायत ने उसके सभी दावे ध्यान से सुने जो कि किसी प्रकार भी उचित नहीं थे किन्तु उदारवादी श्री गुरू अरजन देव जी ने अपने बड़े भाई को सन्तुष्ट करने के लिए वह सभी कुछ जो वह चाहते थे देना स्वीकार कर लिया उन दावों में पृथीचन्द को अमृतसर नगर के बाजारों के किरायों की आमदनी भी थी। समस्त संगत गुरूदेव की विशालता से आश्चर्य चकित थी।