श्री पृथ्वीचन्द को जब समाचार मिला कि श्री गुरू अर्जुन देव जी ने अपने बेटे की सगाई दीवान चन्दूलाल की लड़की से करने से इन्कार कर दिया और उसका शगुन लौटा दिया है तो वह एक बार फिर प्रसन्न हो उठा और फिर से सत्ताधारियों की सहायता प्राप्त कर गुरूदेव जी का अनष्टि करने की सोचने लगा। उसने चन्दूलाल को मिलने की योजना बनाई और उसे पत्र लिखा कि वह उस से मिलना चाहता है। कुछ दिनों पश्चात् जब चन्दू लाल सरकारी दौरे पर लाहौर आया तो उसने पृथ्वीचन्द को निमन्त्रण भेजा और विचारविमर्श के लिए आने को कहा। पृथ्वीचन्द सभी ओर से निराश हो चुका था। उसे अब एक और प्रकाश की किरण दिखाई देने लगी थी। जिस की सहायता से वह गुरूदेव का अनिष्ट करना चाहता था।
पृथ्वीचन्द अपने गाँव हेहरा से लाहौर चला तो उसने पेट भरकर भोजन किया और कुछ रास्ते के लिए साथ रख लिया। घर से कुछ कोस चलने पर पृथ्वीचन्द के पेट में तीव्र पीड़ा (शूल) उठी। देखते ही देखते उसे कै (उल्टी) और दस्त होने लगे। शायद भोजन विषैला था। मार्ग में कोई उचित उपचार की व्यवस्था नहीं हो पाई। रोग गम्भीर रूप धारण कर गया। इस प्रकार हैजे के रोग से ग्रासित होकर पृथ्वीचन्द की जीवन लीला समाप्त हो गई।
जल्दी ही यह सूचना गुरूदेव को भी मिल गई कि आपके बड़े भाई की अकस्मात् मृत्यु हो गई है। वह तुरन्त हेहरा गाँव पहुंचे और | भाई की अंत्येष्टि क्रिया में भाग लिया और भाभी व भतीजे मिहरबान को शोक प्रकट किया।