तब श्री गुरु राम दास जी ने पृथी चंद से कहा – वे पत्र जो इस सेवक ने तुम्हें दिया हे कहा है, हमें क्यों नही दिखाये? पृथीचन्द के पास इस बात का कोई उतर नहीं था। वह बहाने बनाने लगा मुझे ध्यान नहीं आ रहा कि इस व्यक्ति ने मुझे कोई पत्र दिये है वास्तव में मैं काम-काज में बहुत व्यस्त रहा हूँ इस लिए भूल हो सकती है। इस पर गुरूदेव ने कहा – ठीक है वे पत्र हमें तुरन्त दे दो। किन्तु पृथी चन्द मुक्कर गया वह कहने लगा पत्र मेरे पास है ही नहीं। गुरूदेव ने उसी समय एक सेवक को आदेश दिया कि आप पृथीचंद के घर जाये ओर उसकी पत्नी कर्मो से पृथीचंद का चौगा (कोट) मांग लाये। सेवक ने ऐसा ही किया। गुरूदेव ने सजे हुए दरबार में सेवक को आदेश दिया कि पृथी चंद के चौगे की तलाशी लो। तलाशी लेने पर उसकी जेब में से वे पत्र प्राप्त हो गये। इस पर पर पिता गुरूदेव से उल्झने लग गया और क्रोध में पिता श्री की मान मर्यादा के विरूध अपशब्द बोलने लगा। उसने कहा- यह साधारण पत्र ही तो है कौन सी हुन्डी है जिसे तुड़वाने पर उसे लाभ होने वाला था। आप भी बिना कारण मुझे नीचा दिखाना चाहते है इत्यादि। वातारण की गम्भीरता को देखते हुए गुरूदेव ने पृथीचंद को समझाने का प्रयत्न किया और कहा –
काहे पूत झगरत हउ संगि बाप ॥ जिन के जणे बडीरे तुम हउ तिन सिउ झगरत पाप ॥१॥ रहाउ ॥
सारंग म04, पृष्ठ 1200
किन्तु पृथी चंद पर इन स्नेह भरी बातो का कोई प्रभाव न हुआ वह धन और शक्ति के अभिमान में अंहकारी हुई बाते करता रहा जिस का तात्पर्य था कि वह गुरूपद बलपूर्वक प्राप्त कर सकता हे इत्यादि। यह सुनकर गुरूदेव ने उसे समझाने के पुन: प्रयत्न किया और कहा –
जिसु धन का तुम गरबु करत हअु सो धनु किसहि न आप ॥ खिन महि छोडि जाइ बिखिआ रसु तअु लागै पछुताप ॥१॥
राग सारंग महला 4, पृष्ठ 1200
ये तीनों पत्र पढ़कर श्री गुरू रामदास जी अपने छोटे पुत्र श्री अरजन की पितृ – भक्ति देखकर कायल हो गये। गुरूदेव के नेत्र प्रेम अथवा विराग में द्रवित हो गये उनका कंठ अविरूद्ध हो गया। यह दृश्य देखकर संगत अवाक रह गई। कुछ देर के पश्चात् उनका मन शांत हुआ तो उन्होंने गद्गद् स्वर मे उपस्थित जन-समुह को बताया।
बेटे अरजन की पितृ अथवा गुरू भक्ति अतुलनीय हैं। उसने मेरी आज्ञा का जिस श्रद्धा से पालन किया है उसका उदाहरण मिलना कठिन है। वह आज्ञाकारी, नम्रता की मूर्ति, अभिमान से कोसों दूर विवेकशील, ब्रह्मवेत्ता, शाश्वत ज्ञान से परिपूर्ण एक महान व्यक्तित्व का स्वामी है अतः वह ही हमारा उत्तराधिकारी होगा।
घोषण करते ही उसी समय आपने बाबा बुड्ढ़ा जी को लाहौर भेजा कि वह श्री अरजन देव को आदर सहित वापस ले आये और स्वयं उनको गुरूपद सौपने की तैयारी में जुट गये।
श्री अरजन देव जी जैसे ही अमृतसर पहुचे पिता गुरूदेव उनको लेने मार्ग मे मिले। पिता पुत्र की जुदाई समाप्त हुई श्री अरजन देव भागकर गुरूदेव के पुनीत चरणों में नत मस्तक हो गए। दबी पीड़ा अश्रुन्धारा में फूट पड़ी। सजल नेत्रों से पिता श्री के चरण धो डाले और हृदय वेदक वाणी में कह उठे। यह अरजन कितना अभागा है कि आप के पुनीत दर्शनों के लिये भी तरसता रहा। पिता श्री ने उनको उठाकर गले से लगाया और उनकी भीगी पलके सब कुछ मौन व्यक्त कर रही थी। उनका लाडला एक कठिन परीक्षा में सफल हुआ है। भला पिता के लिए इससे बड़ा गौरव और क्या हो सकता था अतः उन्होने अरजन के ललाट पर एक आत्मीय चुम्बन अंकित कर दिया।
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार गुरूदेव ने तत्काल दरबार सजाया और अपने प्रिय पुत्र को अपने निर्णय से अवगत कराया कि हम तुम्हें श्री गुरू नानक देव जी के पांचवें उत्तराधिकारी नियुक्त करते है। पुत्र को तो पिता गुरूदेव की आज्ञा का सम्मान करना ही था। इस लिए श्री अरजन देव जी ने कोई विरोध प्रकट नहीं किया। गुरूदेव ने उन्हें तुरन्त अपने सिंहासन पर बिठाकर परम्परा अनुसार बाबा बुड्डा जी द्वारा तिलक दिया और स्वयं गुरू मयार्दा अनुसार एक विशेष थाल में भेंट स्वरूप कुछ विशिष्ट सामग्री अर्पित करते हुए डण्डवत प्रणाम किया और समस्त संगत को आदेश दिया कि वह उनका अनुसरण करें। संगत ने गुरूदेव की आज्ञा का पालन करते हुए श्री अरजन को पांचवा गुरू स्वीकार कर लिया। किन्तु पृथीचंद ने बहुत बड़ा उपद्र करने की ठान ली। उसने कुछ मसंदो (मशनरियों) के साथ साठ-गांठ कर रखी थी। वह उनको लेकर गुरू दरबार में अपना पक्ष लेकर पहुंचा और गुरूदेव के समक्ष तर्क रखने लगा कि गुरू पद उसे मिलना चाहिए था क्योंकि वह हर दृष्टि से उसके योग्य है। इस पर कुछ विशिष्ट व्यक्तियों ने उसे समझाने का असफल प्रयास किया जिन में मामा गुरदास जी, माता भानी जी तथा बाबा बुड्ढ़ा जी भी सम्मित थे। सभी ने मिलकर उसे समझाया कि गुरूता गद्दी किसी की भी विरासत नहीं होती, जैसे कि तुम जानते ही हो प्रथम गुरूदेव श्री गुरु नानक देव जी ने अपने पुत्रों को गुरू पद नहीं दिया जबकि वे दानों योग्यता की दृष्टि से किसी से कम नहीं थे। ठीक इसी प्रकार गुरू अंगद देव जी ने भी अपने सेवक को गुरिआई बखशी थी। वह सेवक कोई ओर नहीं तुम्हारे नानजी ही थे जो कि उनकी आयु से बड़े भी थे। बस और तुम्हें बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि तुम्हारे नाना श्री गुरु अमर दास जी ने भी समय आने पर गुरू पद तुम्हारे पिता जी को दिया है तो कि वास्तव में उनके सेवक थे। वह चाहते तो अपने बेटों को अपना उत्तराधिकारी बना सकते थे क्योंकि तुम्हारे मामा मोहन जी तथा मोहरी जी दोनो योग्य है किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया।
इन तर्कों के आगे पृथीचंद के पास कोई ठोस आधार नहीं बचा था। किन्तु वह अपनी हठधर्मी पर अड़ा हुआ था। वह गुरूदेव पिता जी से उल्झ गया कि आप ने मेरे साथ पक्षपात किया है मैं बड़ा हूं अतः आपको मुझे उतराधिकारी घोषित करना चाहिए था। गुरूदेव ने उसे समझाते हुए कहा – गुरू घर की मर्यादा है किसी पूर्ण विवेकी पूरूष को गुरूपद दिया जाता है यह दिव्य ज्योति है, किसी की विरासत वाली वस्तु नहीं इस लिए इस परम्परा के समक्ष तेरी नाराजगी का कोई औचित्य नहीं बनता। किन्तु पृथी चंद अपनी हठधर्मी से टस – मस नहीं हुआ। उसका कहना था कि केवल आप मुझ में कोई कमी बता दें तो मै संतोष कर लूगा। इस पर श्री गुरू रामदास जी ने श्री गुरू अरजन देव जी द्वारा वह तीनों पत्र संगत के सममुख रख दिये और कहा – पृथीचंद यह पद्य अधुरे है इन को सम्पुर्ण करने के लिए कोई ऐसी रचना करो जिससे यह सम्पूर्ण हो जाये। अब पृथीचन्द के समक्ष एक बड़ी चुनौती थी किन्तु प्रतिभा के अभाव में वह कड़े प्रयास करने के पश्चात् भी एक शब्द की भी रचना नहीं कर पाया। अन्त में गुरूदेव ने श्री गुरू अरजन देव जी को आदेश दिया कि बेटा अब तुम्ही इस कार्य को सम्पुर्ण करो। इस पर श्री गुरू अरजन देव जी ने निम्नलिखित रचना कर के गुरूदेव पिता जी के सममुख प्रस्तुत की :
भागु होआ गुरि संतु मिलाइआ ॥ प्रभु अबिनासी घर महि पाइआ ॥ सेव करी पलु चसा न विछुड़ा जन नानक दास तुमारे जीउ ॥४॥
इस नई रचना को देखकर पिता श्री गुरू रामदास जी व संगत अति प्रसन्न हुई, केवल दुखी हुआ तो पृथीचंद। वह सभी को कोसता रहा परन्तु कुछ कर नहीं पा रहा था।