आप के प्रवचनों का विषय समय-समय अलग – अलग होता किन्तु प्रवचनो का तत्व सार अधिकांश यही रहता कि मनुष्यों को प्रकृति के नियमों को समझना चाहिए और उसी का अनुसरण करते हुई बिना किसी हस्तक्षेप के सहज जीवन जीना चाहिए। आप जी कीर्तन को सर्वोतम स्थान देते आप का मानना था कि कीर्तन मन पर नियन्त्रण करके विकारों से बचाता है और सुरति को प्रभु चरणों में जोड़ने को एक अच्छा साधन है जिससे भक्तगण को नाम रूपी अमृत की प्राप्ति होती है इस प्रकार जब भरपूर दिन चढ़ जाता तो आप जी दरबार की समाप्ति कर लंगर में पधारते और संगत के संग नाश्ता करते। यहां से निपट कर चल रहे भवन निर्माण कार्यो की देखरेख में जुट जाते। दुख भंजनी बेरी नामक वृक्ष के नीचे बैठकर सेवकों को निर्देश देते।
दुपैहरे के समय आप जी पुन: संगतों की भोजन व्यवस्था देखने के लिए लंगर में पहुंच जाते। जब सब यात्री अथवा सिख संगत भोजन ग्रहण कर लेती तो आप भी भोजन करते। तद्पश्चात आप जी कुछ समय आराम के लिए अपने निजी घर में चले जाते और संध्या होने से पूर्व पुनः दीवान (दरबार) में पधारते। पहले दूर-दराज से आई हुई संगत से कुशलक्षेम पूछते और उनके रहने इत्यादि का प्रबन्ध करते। फिर आप जी सैर करते हुये और सरोवर की परीक्रमा करते इस प्रकार आप दूर-दूर तक एक दृष्टि पूरे नगर पर डालते और सब की समस्याएं सुनते। कुछ एक का तो आप जी तुरन्त समाधान कर देते। लोअ कर सोदूर (रहिरास) की चौकी में भाग लेते उपरांत कीर्तन की चौकी होती। कीर्तन की समाप्ति पर दूर-दराज से आई संगत से विचार विर्मश होता। गुरूदेव उसके संशयों का समाधान करते और आध्यात्मिक उल्झनों को सुलझाने का प्रयत्न करते। इस प्रकार आप जी रात्री के आराम के लिए अपने निजी गृह चले जाते।